महापुरुष कृपण की तरह नाप-तौलकर अनुग्रह दान नहीं करते, और यह नहीं कहते कि मनुष्य की बुद्धि और शक्ति के लिए उतना ही दान यथेष्ट है। प्रिय मित्र की तरह वे अपने जीवन की सर्वोच्च साधना का धन श्रद्धापूर्वक मनुष्य को अर्पण करते हैं, और उसे इसके योग्य समझते हैं। उसकी योग्यता कितनी बड़ी है यह बात मनुष्य स्वयं नहीं समझता, लेकिन महापुरुष अच्छी तरह जानते हैं।