हम जगत की समस्त वस्तुओं पर परमेश्वर का स्वामित्व समझें और प्राणी मात्र को उसके कर्ता-हर्तापन में रहने वाले एक विशाल कुटुंब के रूप में समझें, तो जगत में से बिल्कुल आवश्यक वस्तुओं भर के उपभोग करने का अधिकार हमें रहता है। इसपर इससे अधिक अधिकार मानना चोरी है।