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भारत-भारती / वर्तमान खंड / संतान

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मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / वर्तमान खंड / संतान

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    संतान कैसी है हमारी, सो हमीं से जान लो,

    सुख देख कर ही बुद्धि से मन को स्वयं पहचान लो।

    बस बीज के अनुरूप ही अंकुर प्रकट होते सदा,

    बस रख सके रक्षित हा! संतान-सी भी संपदा!

    है आप बच्चे बाप जिनके पुष्ट हों वे क्या भला?

    आश्चर्य है, अभी हमारा वंश जाता है चला!

    दुर्भाग्य ने दुर्बोध कर के है हमें कैसा छला,

    हा! रह गई है शेष अब तो एक ही शशि की कला!

    कितना अनिष्ट किया हमारा हाय! बाल्य-विवाह ने,

    अँधा बनाया है हमें उस नातियों की चाह ने!

    हा! ग्रस लिया है वीर्य-बल को मोह रूपी ग्राह ने,

    सारे गुणों को है बहाया इस कुरीति-प्रवाह ने॥

    अल्पायु में हैं हम सुतों का ब्याह करते किसलिए?

    गार्हस्थ्य का सुख शीघ्र ही पाने लगे वे इसलिए।

    वात्सल्य है या बैर है यह, हाय! कैसा कष्ट है?

    परिपुष्टता के पूर्व ही बल-वीर्य होता नष्ट है!

    उस ब्रह्मचर्याश्रम नियम का ध्यान जब से हट गया—

    संपूर्ण शारीरिक तथा वह मानसिक बल घट गया।

    हैं हाय! काहे के पुरुष हम, जब कि पौरुष ही नहीं!

    निःशक्त पुतले भी भला पौरुष दिखा सकते कहीं!

    यदि ब्रह्मचर्याश्रम मिटा कर शक्ति को खोते नहीं—

    तो आज दिन मृत जातियों में गण्य हम होते नहीं।

    करते नवाविष्कार जैसे दूसरे हैं कर रहे,

    भरते यशो-भांडार जैसे दूसरे हैं भर रहे॥

    जो हाल ऐसा ही रहा तो देखना है क्या अभी;

    होंगे यहाँ तक क्षीण हम विस्मय बढ़ावेंगे कभी।

    सिद्धांत अपना उलट देंगे डारविन साहब यहाँ—

    हो क्षुद्रकाय अबोध नर बंदर बनेंगे जब यहाँ!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 138)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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