श्री कृष्ण का कौरव-सभा में जाना

shrii krishan duryodhan snvaad

छत्र कवि

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श्री कृष्ण का कौरव-सभा में जाना

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    (भुजंगप्रयातछंद)

    सोमवंश धर्मपुत्र शक्र सों सभा लसै।
    चारि बंधु देव से विलोकि दुःख सो नसै॥
    अंजलीन जोरि-जोरि कृष्ण पै विनय करी।
    शोधि कै जहाँ-तहाँ विपत्ति जीव की हरी॥

    अर्द्ध देश पाइये विचार आपसो करौ।
    ज्यों हरे अशेष शोक त्यों कलेश ये हरौ॥
    देश ते निकारि अंध पुत्र कानि नाकरि।
    धाम ग्राम छीनि-छीनि संपदा सबै हरी॥

    (दोहा)

    करि आये हौ करत हौ, सेवक सदा सहाय॥
    करी वंदना कृष्ण की, धर्मसुवन भुवराय॥

    (युधिष्ठिर उवाच)

    कच्छप वपुवरि सागर थाहन।
    मत्स्यरूप शंखासुर दाहन॥
    बंदत मुनिजन सनक सनंदन॥
    जै जै जै तुम जै जगबंदन॥

    शूकर रूप रदन वरनीधर।
    वर हिरण्याक्ष पतित प्राणनिहर॥
    भूतल खल दल दुष्टनिकंदन।
    जै जै जै तुम जै जगबंदन॥

    नर हरि वपु धरि भक्त्त सवाँरण।
    हिरणाकुश नख उदर विदारण॥
    कोटिक कष्टहरण जग-फन्दन।
    जै जै जै तुम जै जगबंदन॥

    छल बल बलि पाताल पठावन।
    बावन बपु जै धरि भूतल आवन॥
    काटत सब माया दुख द्वंद्वन।
    जै जै जै तुम जै जगबंदन॥

    परशु पाणि क्षत्रिय मद नाशन।
    रघुकुल कमल दिनेश प्रकाशन॥
    रामचंद्र दशरथ नृप नंदन।
    जै जै जै तुम जै जगबंदन॥

    कंस कठोर असुर भयकारी। 
    केशी मर्दन अजिरबिहारी॥
    पीत वसन तन चर्चित चंदन।
    जै जै जै तुम जै जगबंदन॥

    बोध स्वरूप पुहुमि पर धरिहौ।
    कलकी ह्वै दुष्टनि संहरिहौ॥
    वर्णत विदित छत्र बहु वंदन॥
    जै जै जै तुम जै जगबंदन॥

    (दोहा)

    विनय मानिकै करि कृपा, दुर्योधन पै जाउ॥
    समझावो बहु विधिन कै, बचै गोत को घाउ॥

    (चौपाई)

    विहँसि कृष्ण तबहीं उठि धाये।
    नगर हस्तिनापुर चलि आये॥
    सुनि कुरुनंदन अनुज पठाये।
    सभा मध्य श्रीकृष्ण लाये॥

    (श्रीकृष्ण उवाच)

    धर्मपुत्र तुम पास पठाये।
    गोत विरोधहि मेटन आये॥
    भूपति जग में यह यश लीजै।
    आधो देश बांटिकै दीजै॥

    अपने कुलहि कलंक न लावो।
    कलह गोत को भूप बचावो॥
    दुर्योधन बोल्यो अकुलाई।
    कैसे सकों कलेश बचाई॥

    देश बांटि जो उनको देहौं।
    योगी ह्वै कपाल कर लेहौं॥
    भूमि बांटि कत मोपै पांवै।
    जो वे नभ भूतल फिरि आवैं॥

    और भूमि भूपति जिनि देहु।
    पंचग्राम दीजै करि नेहु॥
    तिलपथ नाग इंद्रपथ लीजै।
    अरू सुनिपथ पानीपथ दीजै॥

    (दुर्योधनउवाच)

    (दोहा)

    सुचिअग्र जितनी कढ़ै, सो कबहूँ नहिं देहूँ॥
    पीछे भुव वेई लहैं, प्रथम युध्द करि लेहूँ॥

    (चौपाई)

    तुमहिं कहत यह कैसे आवै।
    जीवत म्वहिं को धरणी पावै॥
    सुनि-सुनि वचन जरत है गात।
    जियत सुनै यह अद्भुत बात॥

    (श्रीकृष्णउवाच)

    (सवैया)

    लोक में शोक समूह विनै अपलोक महा अपने शिर लैहौ।
    केलि सकेलि महादुख मेलिहौ यों यश पेलि कै अपयश पैहौ॥
    उपाय कै व्याधि न लीजिये रायसु आय परै तेहि ते पछितैहौ।
    सूझिपरी यह कृष्ण कही तब आपु मही सब दैहौ जुदैहौ॥

    कोपि कै लैइ गदा कर भीम सुपार्थ धनुर्ध्दर वाणनि वा है।
    बंधु समेत तहाँ सहदेव सुसाइर संग्रम को अवगाहै॥
    बैठी ध्वजा हनुमंत बली रण गाजि उठै यह तू मन चाहै।
    ऐसोइ भावतु है जिय तोहिं सुजानै को तेरी कहा मनसा है॥

    (दोहा)

    कृष्ण उठे ये वचन कहि, तिनको यह समझाय।
    भावी सो कैसे मिटै, को कहि सकै बचाय॥

    नगर हस्तिनापुर तबै, कुंती पहुँची आय।
    समाचार श्रीकृष्ण, कहे सकल समझाय॥

    दुर्योधन मति परिहरि, देत न पाँचौ ग्राम।
    देवे को कहि का चली, श्रवण सुनत नहिं नाम॥

    एक बात को भय भयो, कर्णहिं बाढ़यो गर्व।
    मारि लेहूँ यह कह तहै, जीतौं भारत सर्व॥

    जाहु आप तुम कर्ण पै, लाउ आपने गेह।
    कुशल होइ तुम सुतन को, बाढ़ै अद्भुत नेह॥

    कर्ण पास कुंती गई, उन उठि वंदे पाय।
    करि आदर आसन दयो, बैठे सब सुख पाय॥

    (कुंत्युवाच)

    (चौपाई)

    जेठो सुत तू तेरो राज।
    लेहु सकल गृह चलिये आज॥
    हँस्यो कर्ण माता मुख चाहि।
    यह सब बात अबूझत आहि॥

    तब तुम राज्य हमारो टार्यो।
    घालि मंजुषा जल में डार्यो॥
    तनु पोष्यो दुर्योधन छाँह।
    अब कत डारत नरकन माँह॥

    जो नचलो सुत करि के नेहु।
    एक बात तो माँगे देहु॥
    मो पुत्रन को करि न प्रहार।
    यह सब करौ दया को सार॥

    सुन सुत मेरो वचन विलास।
    पाँच बाण जो तेरे पास॥
    जननी को करि कै हित देहु।
    यामें जगत विदित यश लेहू॥

    (कर्णउवाच)

    चारि पुत्र तुवहित परिहरों।
    एक पार्थ सों तो रण करों॥
    और निको नहिं घालों घाउ।
    अब माता अपने गृह जाउ॥

    (दोहा)

    दीने पाँचौ बाण कर, कुंती को तिहि काल।
    विदा करी पग वंदि कै, तबै कर्ण भुवपाल॥

    (चौपाई)

    यह सुनि कुंती आई तहाँ।
    त्रिभुवननाथ कृष्ण हैं जहाँ॥
    कही कर्ण सों वरणि सु नाई।
    यहि विधि कै सब निशा सिराई॥

    (दोहा)

    प्रात होत श्रीकृष्ण, दुर्योधन पास।
    गये फेरि हित संधि के, छत्र सुबुध्दि अवास॥

    (श्रीकृष्णउवाच)

    कह्यो हमारो कीजिये, पंच ग्राम किन देहु॥
    बंधु एक सौ पाँच सौं, निशि दिन बढ़ै सनेहु॥

    (दुर्योधनउवाच)

    नित उठि उसले साल हरि, कतहिं सलावत आनि।
    करों अपांडव भूमि सब, करो न कुल की कानि॥

    (श्रीकृष्णउवाच)

    (घनाक्षरी)

    कोपि कोपि भीम भुजा रोपि रोपि रण मांझ,
    ओपि ओपि मुख गदा लीने गल गाजि है।
    रोप हिये आनि-आनि क्रोध धनु तानि-तानि,
    लैकै पार्थ पानि धनु बाण सूधो साजि है॥
    अश्विनीकुमार के कुमारन की हांक सुने,
    धीर न धरोगे बल पौरुष सो भाजि है।
    गर्व्व ही अरूढ़ मंत्र मूढ़ तू न जानै कछू,
    चेति है तू मूढ़ जब आय मूड़ बाजि है॥

    (दोहा)

    यह सुनि शकुनि सरोष ह्वै, कही नृपतियों जाय।
    कहा कानि याकी करो, बांधि लेहू सुख पाय॥

    सब मिलिकै चाहत कियो, बैन नहीं कछु बात।
    बिलखे भीषम विदुर तब, विह्वल ह्वै गयो गात॥

    (चौपाई)

    भीषम बिदुर विलोकत जानि।
    बदन पसारयो शारंगपानि॥
    मुख भीतर देख्यो ब्रह्मंड।
    संभ्रम पायो चित्त अखंड॥

    (छप्पय)

    देख्यो गगन सु सूर्य्य चंद्र तारागण देखे।
    देखी पुहुमि सुनीर भूरि भूधर सुबिशेखे॥
    देखे सरिता सलिल सिंधु सरवर जल संयुत।
    देखे तरुवर विपिन सघन द्रुम उपवन अद्भुत॥
    मृगराज मत्त मातंग लखि, अवलोके ऋषिराज गन॥
    भ्रम भूलि विदुर भीषम रहे, शिथिल विकल ह्वै सकल तन॥

    (भीमउवाच)

    (चौपाई)

    खल दुर्योधन मर्म नजामत।
    सीख त्रिभुवन पति की नहिं मानत॥
    भूल्यो मूरख नृपता गर्व।
    कुल के कर्म तजे तिन सर्व॥

    हूवै है सो जुरची करतार।
    भीषम कहत बारही बार॥
    चले कृष्ण नृप को समझाइ।
    अब पहुँचे धर्मपुत्र जाइ॥

    (श्रीकृष्णउवाच)

    सूक्षम महि तुमको नहिं देत।
    उद्यम लीनो भारत हेत॥
    बिना युध्द वह कछू न देहै।
    जो रण जीतै सो भुव लेहै॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजय मुक्तावली (पृष्ठ 113-117)
    • संपादक : खेमराज श्रीकृष्णदास
    • रचनाकार : छत्र कवि
    • प्रकाशन : श्री वेंकटेश्वर छापाखाना
    • संस्करण : 1896

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