कृष्ण को गोचारण शिक्षा

krishn ko gocharan shiksha

बक्सी हँसराज

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कृष्ण को गोचारण शिक्षा

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    कान्ह कुंवर जब चले बिपिन को तन-मन आनंद बाढ़े।
    जसुमति नंद नैन भरि दोऊ देत सिखावन ठाढ़े॥
    बिपिन बीच जिनि जाव अकेले छोड़ि सखन को साथू।
    भूल बिसर जिन डारौ कबहूँ कोंदर खंदरन हाथू॥
    तनक-तनक बछरन को लैकै तनक दूरि तुम जइयो।
    जो मैं दीन्ह्यों कान्ह कलेऊ बैठ जमुन तट खइयो॥
    कान्ह कुंवर सों कहत गरो भरि फिरि-फिरि जसुमति मैया।
    जब भूखे तुम होउ लाड़िले तव दुहि पीजो गैया॥
    झाड़ होहिं जहँ सघन लतन के तहँ न तोरियो फूलन।
    कबहूँ नहीं होहु तुम ठाढ़े लागि बिरछ के मूलन॥
    हिले-मिले रहियो ग्वालन में एक ठौर सब आछे।
    जिन दौरियौ उपनये पावन हरुवाइल के पाछे॥
    जहाँ होइ तुन आवृत धरनी तहाँ जात तुम डरियो।
    जीव जंतु तहँ होत घनेरे समझ बूझ पग धरियो॥
    भौंर मछोह होय वृक्षन में कबहूँ न तिनहिं खिझइयो।
    बिड़रानी गैयन के सामू भूलि-बिसरि जनि जइयो॥
    बार-बार बरजत हैं बाबा सुनियो बचन हमारो।
    कंटक तृन कँकरन के ऊपर कोमल पाँव न धारो॥
    जहँ बामी जू मिले गोहन के तहँ बैठक तज दीजो।
    होहिं बेमटे बरर-छताने तिन सों रार न कीजो॥
    जहाँ होहिं चुर सिंह बाघ की तहाँ न कीजो फेरी।
    जिन धरियो तुम धाय विपिन में पूंछ बच्छरन केरी॥
    सघन छाँह तर बैठि जमुन तट कान्ह कलेऊ कीजो।
    बिपिन-बिपिन ते गाय बहोरन पठे सखन को दीजो॥
    ठौर-ठौर पुनि बगर-बगर के बछरा बिछुरि हिरैहैं।
    ढूंढन तुम जिन जाव कहूँ बन भटकत पाँव पिरैहैं॥
    सुनो लाल यह सीख हमारी वे बछरन दुखदाई।
    कबहूँ भूलि न जइयो तेहि बन जेहि बन होत बिघाई॥
    आपुस में कबहूँ लरिकन सों भूलि न करौ लड़ाई।
    हिले-मिले रहियो सबही सों बन-बन धेनु चराई॥
    बार-बार यह कहति जसोमति भरि-भरि आनंद आँसू।
    कबहूँ भूलि जिन करियो साँवलि नागिनि को बिसवासू॥
    जो हम कहें सीख सो कीजो यही बात है भलियो।
    कर्यो बैठि बिसराम बिरछ तर सामे घाम न चलियो॥
    जो कछु सीख देइ बलदाऊ मान सीस धरि लीजो।
    ब्यानी गाय तुरत जो तेहि की तेली भूलि न पीजो॥
    एक बात मैं कहत लाडिले यह विशेष हू कीजो।
    फूले फरे करेंछ बिपिन में तिनको भूल न छीजो॥
    विषधर विषम बलत वहि जागा यह बात जग जानी।
    गोधन को कबहूँ जिन दीजो कालीदह को पानी॥
    और खेल खेलौ गेंदन कौ ढेलन को मत खेलौ।
    सुनो साँवले खेल डुडुरुवा हूडा दै नहिं खेलौ॥
    कान उमेठ कुंवर कान्हर के हटकै जसुमति मैया।
    जिन खेलो तुम डंड साँवरे रूखन पै जु बिलैया॥
    रूखन पै जिनि चढ़ो साँवरे पीपर पात न तोरो।
    गैलन गिडी डंड जिन खेलौ यहै सिखापन मेरो॥
    खाँई कूप बावरी बेहर नदिया नारो बाँको।
    स्यामलिया रे सुन इनहूँ को कबहूँ कूदि न नाको॥
    कंसराय को राज कठिन है जमुना उतर न जइयो।
    साँझ होन नहिं पावै प्यारे दिन बूड़त घर अइयो॥
    जसुमति नंद सीख यह दीनी अपने कुंवर कन्हैये।
    बाँह पकरि आगे दै सौंपे दै अभार बल भैये॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : साहित्य प्रभाकर (पृष्ठ 277)
    • संपादक : महालचंद बयेद
    • रचनाकार : बक्सी हँसराज
    • प्रकाशन : ओसवाल प्रेस कलकत्ता
    • संस्करण : 1937

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