यह पहला पृष्ठ है

ye pahla prishth hai

प्रिया वर्मा

प्रिया वर्मा

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प्रिया वर्मा

और अधिकप्रिया वर्मा

    कितने अर्थ हैं एक वाक्य के!

    वाक्य में छिपी कितनी व्यंजनाएँ!

    कितने मर्म! सुख भी, दुःख भी निर्वात भी!

    और अपना अहंकार लिए डोलती हूँ

    इस सपाट दुनिया के एक भू-भाग पर।

    मेरा हृदय मेरे साथ समझकर

    सपाट क्योंकि मेरी आँखों के देखने की सीमा है

    सीमावर्ती क्षेत्र से आगे निकल देखती हूँ

    अस्तित्व का भूगोल।

    और अभी तो यह पहला ही पृष्ठ है!

    पृष्ठ जिसकी कोई भूमि नहीं

    जहाँ पाँव पड़ते ही धँस गई हूँ मैं

    अनेक भाषाओं के मायाजाल में

    यह गुलाब-बाड़ी

    विशाल संपदा है काव्य की

    मैं पंक्ति के एक शब्द पर ही अटक कर रह गई हूँ।

    कच्चा-पक्का पढ़ रही हूँ

    दिन को दिन, रात को रात

    कला को कला और वाद को वाद

    और यह पहला पृष्ठ है कि

    संपन्न नहीं होता

    पूरी पुस्तक छूट जाएगी अधूरी

    पुनः कर बैठूँगी जानने का अपराध

    यह कोई पत्र नहीं है

    जो पढ़कर रख लूँ आजीवन

    यह उस देवदूत की घनघनाहट को पकड़ने के लिए

    बुना गया यह एक गहरा जाल है

    जिसके बारे में कहते हैं

    वह पीठ पीछे से देखता है, अब भी

    सब जानता है

    हरदम साथ रहता है,

    पर दिखता नहीं

    वह लिखता है जीवन के बारे में

    मृत्यु के अथाह पल तक लिखता ही रहता है

    ‘हृदयहीन’

    वह अदृश्य मुझे क्या बचाएगा!

    कैसे ले जाएगा मुझे अमर्त्य की ओर!

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रिया वर्मा
    • प्रकाशन : समकालीन जनमत

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