यह दुनिया—हमारे दोस्त और दुश्मन
ye duniya—hamare dost aur dushman
मुझे इस बात की कितनी ख़ुशी है
कि मैं दुनिया में पैदा हुआ हूँ।
कि मैं इसकी मिट्टी को
इस अन्न को
इसके संघर्षों को
इसकी धूप को
प्यार करता हूँ।
हालाँकि नक़्शानवीसों ने
इसकी चौहद्दी दो इंच के वृत्त में बाँध दी है
और सूरज के मुक़ाबले में
यह सिर्फ़ खिलौना ही है,
पर मेरे लिए तो इसके विस्तार का
ओर छोर नहीं है
कितना अनिर्वचनीय उल्लास है
धरती की परिक्रमा लगाने में
उसकी मछलियों
उसके सितारों
और उसके अगणित फल फूलों को देखने में
जिनका मैंने नाम भी नहीं सुना।
हाँ, किताबों के नक़्शों के माध्यम से
मैंने यूरोप ज़रूर घूमा है
मगर सिर्फ नक़्शों में।
तमाम उम्र मुझे कोई ऐसा पत्र नहीं मिला
जिस पर एशिया के किसी डाकख़ाने की मुहर हो
अमेरिका के लोग
मुझसे उतने ही अपरिचित हैं
जितना मेरी गली के बनिये से
लेकिन फिर भी हर जगह,
स्पेन से चीन तक
और उत्तमाशा अंतरीप से अलास्का तक
ज़मीन के चप्पे-चप्पे
और समुद्र की लहर-लहर में,
हमारे दोस्त हैं
हमारे दुश्मन हैं।
दोस्त...
मैंने उन्हें कभी देखा भी नहीं
फिर भी संभव है
उन्हें और मुझे
साथ-साथ
अपनी जान देनी पड़े
उसी आज़ादी के लिए
उसी रोटी के लिए
उसी आशा में—
और इसी तरह दुश्मन भी...
लेकिन मेरी ताक़त इस बात में है
कि मैं अकेला नहीं हूँ
मेरे विज्ञान ने
इस दुनिया और उसके बाशिंदों को
अच्छी तरह समझ लिया है
इसीलिए
तमाम शंकाओं, प्रश्नचिह्नों और असमंजसों
से मुक्त होकर
मैंने इस महान संघर्ष में
निश्चिंत होकर अपना दायित्व सँभाल लिया है!
तुम और दुनिया
मेरी पंक्ति में नहीं हो
इससे मुझे संतोष नहीं
लेकिन इसके बावजूद तुम्हारे लिए
मेरे मन में असीम स्नेह है।
और, सारी दुनिया मुझे इतनी
ममतामयी और सुंदर लगती है
- पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 233)
- संपादक : धर्मवीर भारती
- रचनाकार : नाज़िम हिकमत
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
- संस्करण : 1960
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