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वह रसिक नहीं है

wo rasik nahin hai

बी. गोपाल रेड्डी

बी. गोपाल रेड्डी

वह रसिक नहीं है

बी. गोपाल रेड्डी

और अधिकबी. गोपाल रेड्डी

    वह

    मृदुभाषिणी है,

    मितभाषिणी है,

    प्रियंवदा है।

    वह किसी पर आक्षेप करती

    किसी की आलोचना,

    वह सुशीला है।

    दुपहर की बातचीत में

    उसके मुँह से निकल पड़ा—

    “वह रसिक नहीं है”।

    वह “रसिक है” और “वह अरसिक है”—

    इन दोनों में

    तिल-ताड़ का अंतर छिपा हुआ है।

    आवेगरहित होकर

    उसने गंभीरता से कहा—

    “वह रसिक नहीं है।”

    इस “नहीं है” के पीछे

    कितनी सुनी-सुनाई बातें, अफ़वाहें,

    यादें, अनुभूतियाँ

    दबी हुई हैं।

    इन सभी का सार ही यह “नहीं” है।

    अगोचर मृणाल पर उभरा हुआ

    कमल ही यह शब्द है,

    फूलों के झर जाने पर

    बचा हुआ कच्चा फल ही यह, शब्द है।

    काले बादलों से दुलकती

    बरसात की बूँद ही यह शब्द है

    अँगीठी की चिनगारी ही यह शब्द है।

    पर्वतों के पंखों को काटे हुए

    वज्रायुध की धार ही यह शब्द है।

    “नहीं” ये दो अक्षर—

    (एक लघु है, एक गुरु है)

    उसके मुँह के तूणीर से

    तीरों से निकल गए हैं

    वह व्यक्ति

    जो रसिक जैसा लगता है

    बड़े पदों की आकांक्षा करता है,

    महापंडित समझा जाता है,

    उस पर फ़ैसला सुनाया उस युवती ने

    कि “वह रसिक नहीं है”।

    युवती स्वभाव से सरला है,

    मितभाषिणी है।

    इस निर्णय के पीछे

    जाने कितनी घटनाओं की यादें

    दबी हुई हैं।

    कल्पना-अचुम्बित स्मृतियाँ

    जाने कितनी छिपी हुई हैं।

    स्वर्ग की ऊँचाइयों से वह गिर गया है

    त्रिशंकु-सा,

    वह स्वर्गच्युत

    पंडित होकर भी अरसिक निकला!

    बेचारा!

    स्रोत :
    • पुस्तक : लोकालोक (पृष्ठ 84)
    • रचनाकार : बी. गोपाल रेड्डी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1989

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