वह भाषा

wo bhasha

मिथलेश शरण चौबे

और अधिकमिथलेश शरण चौबे

    जैसे भाषा के बिना

    विचारों का होना संभव नहीं

    भाषा के सपने से बाहर

    दरअसल सपनों से पूरी तरह बेदख़ल होना था

    पर अबकी ठान ही लिया

    कि जिस भाषा में

    मैं प्रार्थना करता हूँ और प्रेम

    उसी से अपमान होता है

    एक निरापद कविता और कवि का

    उसी से ढेर सारी हिंसा और

    उन्माद झरता है

    उसी से दुत्कार दिया जाता है सच

    और नकार दी जाती है सुंदरता

    जिस भाषा से मैं

    झुकता चला जाता हूँ पवित्र विनम्रता में

    वही आखेट करना चाहती है विनय का

    वही अलक्षित करती है किसी नैतिक प्रतिरोध को

    वही ढकेल देती है

    कगार पर खड़े शिशु को

    जिसकी निरीह आँखों में बसे कौतूहल में

    विन्यस्त है एक पूरी दुनिया

    वह भाषा जिसे सुनकर

    तुम मुग्ध हो और मैं आह्लादित

    वही क्यों संशय, भय और अविश्वास की

    कठोरता धरना चाहती है

    हमारे अनिर्वचनीय सुख को

    मिटा देना चाहती है

    क्यों नश्वर जीवन को

    अनश्वरता के गल्प का अट्टहास देना चाहती है

    मैं जिस भाषा में प्रार्थना करता हूँ

    और प्रेम

    उसी भाषा से प्रेम करता हूँ

    और उसी के लिए प्रार्थना भी

    कि उसमें वह शक्ति बची रहे

    कि विदा के समय साथ के लिए

    एक फूल तोड़ते एक सयाने कवि का

    हाल-चाल पूछ सके और

    सपनों से बेदख़ली के समय

    रोक सके मुझे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मिथलेश शरण चौबे
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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