वे लांछित हुईं

we lanchhit huin

नेहा अपराजिता

नेहा अपराजिता

वे लांछित हुईं

नेहा अपराजिता

और अधिकनेहा अपराजिता

    वे लांछित हुईं क्योंकि

    नहीं ज्ञान था उनको दुनियादारी का

    नहीं पता था कि विश्वास

    सिर्फ़ घर-घराने के लोगों पर ही करना है

    कर लिया उन्होंने विश्वास अजनबियों पर

    उन्होंने अपनों से परे

    निभाई ईमानदारी दूसरों से

    सज़ा है उनकी कि वे लांछित हो

    वे लांछित हुईं क्योंकि

    निश्चय था उनका, समाज से ऊपर उठ

    अपने किए वायदे पर अटल रहने का

    सामाजिक असमानता को ठुकरा

    उन्होंने चुनी थी अलग राह

    उन्होंने रखा अपने प्रेम को सर्वोपरि

    हो गईं मौन हर तानें उलाहनें पर

    स्वीकारा उन्होंने कि वे लांछित हों

    वे लांछित हुईं क्योंकि

    मुँह सिल उन्होंने सहे फिर धोखे

    नहीं की उफ़्फ़, भरी कराह

    ईमानदारी का ईनाम उनका निजी विषय बन गया

    नहीं रखा उन्होंने अपना पक्ष, नहीं माँगी मदद

    गहन मौन में जाकर अपने ईमान की प्रमाणिकता सिद्ध की

    उकसाने पर भी उन्होंने ज़ुबान खोली

    नियति है उनकी वे लांछित हों

    वे लांछित हुईं क्योंकि

    उन्होंने अपने इतिहास को भुला

    अपने भाग्य का नया भूगोल ढूँढ़ने की कोशिश की

    इस बार मिलनसार होने की सोची सबसे

    फिर की ग़लती,

    मानव मस्तिष्क सिर्फ़ अपना इतिहास भूल सकता है

    दूसरे का नहीं, इस बार उनके बदले का

    शिकार हुईं जो मुँहबोले अपने थे

    इतिहास कहता है कि वे लांछित हों

    वे लांछित हुईं क्योंकि

    उन्होंने तोड़ी मर्यादा,

    उन्होंने पुरुष मित्र भी उतनी ही संख्या में बनाएँ

    जितनी संख्या महिला मित्रों की थी

    जैसे प्रेम की प्रमाणिकता सिंदूर में है वैसे ही

    भाई बहिन की प्रमाणिकता राखी बंधन में है

    यूँ ही पुरुष से मित्रता की प्रमाणिकता

    उस पुरुष की प्रियसी की सखी होने में हैं,

    नियम-क़ानून की

    अज्ञानता कहती है कि वे लांछित हों

    वे लांछित हुईं क्योंकि

    उन्होंने नहीं सहे किसी के अश्लील मज़ाक़

    ग़लत बातों और इरादों पर वे तिलमिला गईं

    गंदी मादक नज़रों को उन्होंने नज़रंदाज़ किया

    धर्म और मर्यादा की बात की उन्होंने

    उनको क्यों नहीं ज्ञात कि

    वे उस जुमले में शामिल हो चुकीं हैं

    जो नहीं उठा सकता है कोई आवाज़

    नहीं हैं वे अधिकारिणी किसी भी नैतिकता की

    बार-बार भूलती हैं वे अपना इतिहास

    नैतिकता कहती है कि

    वे लांछित हों

    वे लांछित हुईं क्योंकि

    अंदर के ग़ुबार ने अब

    बाहर निकलने के लिए उत्पात मचा दिया

    अब वे बोलने को व्याकुल हो उठीं

    सच, कडवा सच, तीखा सच, जटिल सच, सीधा सच, उल्टा सच

    वे बोल पड़ीं सब

    उनकी बेचैनी ने सिद्ध किया कि वे विक्षिप्त हैं

    सहारे, साथ, सहयोग की जगह

    उनको मिली नई पहचान पागलपन की

    अब फिर हैं वे मौन, उफ़्फ़ तक करने को बाध्य

    एकांत में है वे, अछूत सी

    आजीवन रहेंगी वे रजस्वला

    उनका मौन उनसे कहता है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : नेहा अपराजिता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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