वसंतोत्सव

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बालमुकुंद गुप्त

बालमुकुंद गुप्त

वसंतोत्सव

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

     

    (1)

    आ आ प्यारी वसंत ऋतुओं में प्यारी,
    तेरा शुभागमन सुन फूली केसर क्यारी।
    सरसों तुझको देख रही है आँख उठाए,
    गेंदे ले-ले फूल खड़े हैं सजे सजाए।
    आस कर रहे हैं टेसू तेरे दर्शन की,
    फूल-फूल दिखलाते हैं गति अपने मन की।
    बौराई-सी ताक रही है आम की मौरी,
    देख रही है तेरी बाट बहोरि-बहोरी।
    पेड़ बुलाते हैं तुझको टहनियाँ हिलाके,
    बड़े प्रेम से टेर रहे हैं हाथ उठा के।
    मारग तकते बेरी के हुए सब फल पीले,
    सहते-सहते शीत हुए सब पत्ते ढीले।
    नींबू नारंगी हैं अपनी महक उठाए,
    सब अनार हैं कलियों की दूरबीन लगाए।
    पत्तों ने गिर-गिर तेरा पांवड़ा बिछाया,
    झाड़ पोंछ वायु ने उसको स्वच्छ बनाया।
    फुलसुंघनी की टोली उड़ डाली-डाली,
    झूम रही हैं मद में तेरे हो मतवाली।
    इस प्रकार है तेरे आने की तय्यारी,
    आ आ प्यारी वसंत सब ऋतुओं में प्यारी॥

    (2)

    एक समय वह भी था प्यारी जब तू आती,
    हर्ष हास्य आमोद मौज आनंद बढ़ाती।
    होते घर-घर बन-बन मंगलचार बधाई,
    राव चाव से होती थी तेरी पहुनाई।
    ठौर-ठौर पर गाए जाते गीत सुहाने,
    दूर-दूर जाते तेरा तिवहार मनाने।
    कुछ दिन पहिले सारे बन उद्यान सुधरते,
    सुंदर-सुंदर कुंज मनोहर ठाँव सँवरते।
    लड़की लड़के दौड़-दौड़ उपबन में जाते,
    अच्छे-अच्छे फूल तोड़ते हार बनाते।
    क्यारी-क्यारी में फिर जाते मालिन माली,
    चुन-चुन सुंदर फूल बनाते कितनी डाली।
    ठाँव-ठाँव पर बिछतीं सुंदर फटिक शिलाय,
    आने वाले बैठें छबि निरखें सुख पाएँ।
    सखी देखने आतीं उनकी वह सुघराई,
    एक दूसरी को देतीं सानंद बधाई।
    सारी शोभा देख-देखकर घर को फिरतीं,
    कहके अपनी बात मुदित सखियों को करतीं।
    कहती थीं प्रमुदित हो होके सब सुकुमारी,
    आ आ प्यारी वसंत सब ऋतुओं में प्यारी।

    (3)

    माघ सुदी पांचों का शुभ अवसर जब आता,
    सचराचर संसार हर्ष सूरत पूरित हो जाता।
    मिल जाता था समाचार सबको पहिले ही,
    वस्त्र वसंती सजने का है शुभ दिन ये ही।
    दिवस दूसरे प्रातहि से रंग घोले जाते,
    सबके अंग वसंती जोड़े शोभा पाते।
    सब किसान मिलकर अपने खेतों में जाकर,
    फूल तोड़ते सरसों के आनंद मनाकर।
    बन में होते लड़कों के पाले औ दंगल,
    चढ़त ढाकों पर औ फिरते जंगल-जंगल।
    कूद फाँदकर भाँति-भाँति की लीला करते,
    महामुदित हो जहाँ-तहाँ स्वच्छंद विचरते।
    उद्यानों में जातीं थीं मिल युवती बाला,
    वां पर भी होता था कुछ आनंद निराला।
    मुदित चित्त से कामदेव की पूजा करतीं,
    हर्षित मन से कुंज-कुंज के बीच विचरतीं।
    बाट देखने लगती थीं ठकुरानी की तब,
    मुड़-मुड़कर देखती अधिक उत्कंठा से सब।
    चाव भरे मन से यह कहती थीं सब नारी,
    आ आ प्यारी वसंत सब ऋतुओं में प्यारी॥

    (4)

    वहाँ पहुँचती जब ठकुराइन की असवारी,
    पूजा करने तब उसके संग सब जातीं सारी।
    लपक-लपक तोड़तीं सभी मंजरी आम की,
    हँस-हँस के करतीं पूजा वंदना काम की।
    फिरती-फिरती जब कोई अति ही थक जाती,
    पेड़ तले बैठती सखी को टेर बुलाती।
    मालिन को देती कोई पकवान मिठाई,
    बदले में पाती असीस सानंद बधाई।
    कोई अपनी प्यारी को कुछ आय सुनाती,
    कहके सुख की बात कान में अधिक हँसाती।
    कोई करके छेड़ मरम की आप लजाती,
    सुख देती अपनी प्यारी को औ सुख पाती।
    खेल कूदकर इस प्रकार सब दिवस बितातीं,
    साँझ हुए से पहिले अपने घर को आतीं।
    उधर खेलकर जंगल से सब लड़के आते,
    सरसों की टहनियाँ फूल टेसू के लाते।
    हँसते और खेलते सब आते प्रसन्न मन,
    घर में आकर पाते मीठे-मीठे भोजन।
    रातों को गाती वसंत मिल सखियाँ सारी,
    आ आ प्यारी वसंत सब ऋतुओं में प्यारी॥

    (5)

    कोसों तक पृथिवी पर रहतीं सरसों छाई,
    देती दृग की पहुँच तलक पीतिमा दिखाई।
    सुंदर-सुंदर फूल वह उसके चित्त लुभाने,
    बीच-बीच में खेत गेहूँ जौ के मनमाने।
    वह बबूल की छाया चित्त को हरने वाली,
    वह पीले-पीले फूलों की छटा निराली।
    आसपास पालों के वट वृक्षों का झूमर,
    जिसके नीचे वह गायों भैसों का पोखर।
    ग्वाल बाल सब जिनके नीचे खेल मचाते,
    बूँट चने के लाते होले करते खाते।
    पशुगण जिनके तले बैठ के आनंद करते,
    पानी पीते पगुराते स्वच्छंद विचरते।
    पास चने के खेतों में बालक कुछ जाते,
    दौड़-दौड़ के सुरुचि साग खाते घर लाते।
    आपस में सब करते जात खिल्ली ठट्ठा,
    वहीं खोलकर खाते मक्खन रोटी मट्ठा।
    बातें करते कभी बैठ के बाँधे पाली,
    साथ-साथ खेतों की करते थे रखवाली।
    कहते हर्षित सभी देख फूली फुलवारी,
    आ आ प्यारी वसंत सब ऋतुओं में प्यारी॥

    (6)

    हाय समय ने एक साथ सब बात मिटाई,
    एक चिह्न भी उसका नहीं देता दिखलाई।
    कटे-पिटे मिट गए वह सब ढाकों के जंगल,
    जिन में करते थे पशुपक्षी नितप्रति मंगल।
    धरती के जी में छाई ऐसी निठुराई,
    उपजीविका किसानों की सब भाँति घटाई।
    रहा नहीं तृण न्यार कहीं कृषकों के घर में,
    पड़े ढोर उनके गोभक्षक कुल के कर में।
    जिन सरसों के पत्तों को डंगर थे खाते,
    उनसे वह अपना जीवन हैं आज बिताते।
    लवण बिना वह भी हा रह जाता है फीका,
    नहीं पूछता भाव आज कोई उनके जी का।
    जिन खेतों में आय पथिक गण बहु सुख पाते,
    फल खाते सुसताते सानंद घर को जाते।
    गाँवों के लड़के जब उन खेतों में आते,
    ढेरों सरसों तोड़-तोड़ घर में ले जाते।
    आज पुलिसवाले उनको करके बरजोरी,
    जेल रहे हैं भेज, लगा सरसों की चोरी।
    हा! वह उनकी संपत्ति वह उनकी प्रभुताई,
    एक चिह्न भी उनका नहिं देता दिखलाई।

    (7)

    कहाँ गए वह गाँव मनोहर परम सुहाने,
    सबके प्यारे परम शांतिदायक मनमाने।
    कपट और क्रूरता पाप और मदसे निर्मल,
    सीधे-सादे लोग बसे जिनमें नहिं छलबल।
    एक साथ बालिका और बालक जहँ मिलकर,
    खेला करते औ घर जाते साँझ परे पर।
    पाप भरे व्यवहार पाप मिश्रित चतुराई,
    जिनके सपने में भी पास कभी नहिं आई।
    एक भाव से जाति छतीसों मिलकर रहतीं,
    एक दूसरे का दु:ख-सुख मिलजुल कर सहतीं।
    जहाँ न झूठा काम न झूठी मान बड़ाई,
    रहती जिनके एकमात्र आधार सचाई।
    सदा बड़ों की दया जहाँ छोटों के ऊपर,
    औ छोटों के काम भक्ति पर उनकी निरभर।
    मेल जहाँ संपत्ति, प्रीति जिनका सच्चा धन,
    एकहि कुल की भाँति सदा बसते प्रसन्न मन।
    पड़ता उनमें जब कोई झगड़ा उलझेड़ा,
    आपस में अपना कर लेते सब निबटेड़ा।
    दिन-दिन होती जिनकी सच्ची प्रीति सवाई,
    एक चिह्न भी उसका नहीं देता दिखलाई॥

    (8)

    आती है चाँदनी ध्यान में जब फागन की,
    अति चंचल हो जाती है गति मेरे मन की।
    कौन दृश्य इन आँखों के आगे फिरता है,
    कौन इन्हें आकर घंटों निश्चल करता है।
    पलक नहीं झपती रह जाती है पथरा के,
    कौन इन्हें यूँ रखता है पहरों बिलमा के।
    हे हे दुखिया डूबी हो किस दुख सागर में,
    अब इन बूँदों भेट कहाँ है भारत भर में!
    शोक ग्रसित क्यों हुई नहीं क्यों पलक उठातीं,
    क्या खोया जिसको ढूँढ़ से भी नहिं पातीं?
    ढलक बूँद एक आँसू की जब मुँह पर आई,
    छटा चाँदनी की पत्तों पर दी दिखलाई।
    चौंक पड़ी एक बार शब्द झाँझों का सुनकर,
    पलक उठीं तो हाय रह गया सिर को धुनकर।
    कब तक धोका धरूँ बता हे प्यारी आशा,
    कब तक देखे जाऊँ यह सुख रहित तमाशा?
    कहाँ झाँझ का शब्द कहाँ पर डफ मृदंग है,
    कहाँ वह सब लीला और उसका रंग-ढंग है।
    वह सुअवसर और अलौकिक सुंदरताई,
    एक चिह्न भी उसका नहिं देता दिखलाई॥

    (9)

    पतितपावनी पूजनीय यमुना की धारा,
    सदा पापियों का जो करती थी निस्तारा।
    अपनी ठौर आज तक वह बहती है निरमल,
    बना हुआ है वैसा ही शीतल सुमिष्ट जल।
    विस्तृत रेती अब तक वैसी ही तट पर है,
    आसपास वैसा ही वृक्षों का झूमर है।
    छिटकी हुई चाँदनी फैली है वृक्षों पर,
    चमक रहे हैं चारु रेणु कण दृष्टि दु:ख हर।
    वही शब्द है अब तक पानी की हलचल का,
    बना हुआ है स्वभाव ज्यों का त्यों जलथल का।
    वो ही फागन मास और ऋतुराज वही है,
    होली है और उसका सारा साज वही है।
    अहह! देखने वाले इस अनुपम शोभा के,
    कहाँ गए चल दिए किधर मुँह छिपा-छिपा के।
    प्रकृति देवि! हा! है यह कैसा दृश्य भयानक,
    हृदय देख के रह जाता है जिसको भवचक!
    क्या पृथिवी से उठ गई सारी मानव जाती,
    क्यों नहिं आकर उस शोभा को अधिक बढ़ाती।
    किसने वह सब अगली पिछली बात मिटाई,
    एक चिह्न भी उसका नहिं देता दिखलाई।

    (10)

    हाहा आज अकेला इस तटपर फिरता हूँ,
    लख के रह जाता हूँ वही-वही करता हूँ।
    हाय सुनाऊँ किसको जाकर वही वही की,
    जी ही लगी जानता है कुछ अपने जी की।
    आया हूँ क्या यही देखने को सन्नाटा,
    जिसने जग से एक बार ही चित्त उचाटा।
    जाग रहा हूँ वा यह सपना देख रहा हूँ,
    क्या वह दशा नहीं क्या मैं ही भूल गया हूँ।
    कोई ध्वनि सुनने को जब हूँ ध्यान लगाता,
    शिवा रुदन का अशिव शब्द तब हूँ सुन पाता।
    अथवा कहीं उलूक कोई चिल्ला उठता है,
    मुवा-मुवा की ध्वनि से जी घबड़ा उठता है।
    झाँपल के अतिरिक्त बात कोई नहिं करता,
    प्रेतयोनि के सिवा यहाँ कोई नहीं विचरता।
    पथिक एक भी नहीं राह में है दिखलाता,
    बिना बगूले और कोई नहिं आता जाता।
    मनुजनाद कोसों तक देता नहीं सुनाई,
    चारों ओऱ घोर सुनसान उदासी छाई।
    सुन पड़ती नहिं कहीं आज वह ध्वनि सुखकारी,
    आ आ प्यारी वसंत सब ऋतुओं में प्यारी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 633)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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