वर्षा

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बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    छए घोर चहुँ ओर मेघ, पावस की परी पुकार।

    घन गरजत चपला अति चमकत, फरफर उड़त फुहार।

    देखहु भयो गगन मंडल को कैसो औरहि रूप।

    औरहि रंग भयो धरनी को सोभा अधिक अनूप!

    मिट्यो ताप ग्रीसम को डोलत, सीतल अमल बयार।

    अब नाहीं बरसत नभ तें लूअन के तेज अंगार।

    अब नहिं उड़त भूमि के मुख पै, निसि बासर बहु धूर।

    अब नहिं रहत धूरि धूसर सों, नभ मंडल परिपूर।

    अब नहिं करत पिपासा तन महं प्रान छनहिं छनछीन।

    अब नहिं छटपटात नारी नर, जल बिहीन जिमि मीन।

    आवहु-आवहु मेघ अहो, पावस रुत के सिरताज।

    तव प्रताप सब सूखे गीले, भए हरे से आज।

    यह हरियाली नाहिंन चहुँ दिस उमड़ि उभारत गात।

    भयो अपार अनंद भूमि को, फली अंग समात।

    बहु दिन बीते बाट निहारत हे नवघन चितचोर!

    चाह भरी अँखियाँ सबही की लागीं नभ की ओर।

    आज भई सीतल सो अँखियाँ, तो कहँ सम्मुख पाय।

    घर बाहर आँगन द्वारन आनंद रह्यो अति छाय।

    तेरे ही दम की है यह सब लहर बहर घनराय।

    सूखे बन बीहड़ पहाड़ मग सबै उठै हरियाय।

    तेरी एक बूँद हे घन! जीवन-जल-बूँद समान।

    तू ही देत सब जग कहँ जीवन, हे जगजीवन प्रान!

    यह केते पायन को रौंदी सूखी झुलसी दूब।

    हरी करी बरसाय अमिय ता ऊपर कीनी ख़ूब।

    बाढ़त हैं पौधन रूपी-सिसु तेरो ही पय पाय।

    अरु बूढ़े-बूढ़े पेड़न को तू ही होत सहाय।

    कहा बताऊँ प्यारे तोसों तेरे पय को ज़ोर।

    निकसत छुद्र अन्न को दाना परबतहू कहँ फोर!

    कुसुमित भए लता पल्लव बहु विपिन उठे अति फूल।

    उमड़ि नदी इतराई डोलत भूल रही दोउ कूल।

    कबहूँ देत धरती कहँ इक धानी सारी पहिराय।

    कबहूँ खिले फूलन सों ताके मुख कहँ देत खिलाय।

    पलटत नभ चढ़के इक छन महं भाँति-भाँति के रंग।

    साची कहो कहाँ यह सीखे भानमती के ढंग?

    जब तू चढ़त गगन पै है घन करि निज मन की मौज।

    गहरे दल बादल की लीन्हें आगे पीछे फ़ौज।

    धावत सोभा पावत मानहु मत्त गजन को झुँड।

    बलकर परबत तोड़न हेत लरावत अपने सुँड।

    गरजत, यूथ गजन के मानहु हिलमिल करहिं चिंघार।

    फार्यौ हीयो कंदरान को कँपित भए पहार।

    अरु सीतल समीर के झोंके भिरत तरुन संग जाय।

    मनहु लता पल्लव के साजन सों सुर रहे मिलाय।

    मधुर स्वरन कोयलिया कूकहिं पिकहिं मचायो रोर।

    गावत मीठी तान बिहग बहु छनछन नाचत मोर।

    यह बूढ़ किसान भारत के अहो मित्रवर नीर!

    सबरे हैं तेरी लकीर पै बैठे बने फ़कीर।

    नाहिं दूसरो नेहचो जिनके नाहिं दूसरी बान।

    तू ही एक सहारो तिनके अथवा श्री भगवान।

    मिटी आज उनकी सब चिंता दु:ख ताप भयो दूर।

    बैठे फूलि-फूलि निज खेतन सुख की उठत हिलूर।

    जो नद पर्यो हतो रेती पै सिसकत सर्प समान।

    सो अब उमड़ि-उमड़ि निज लहरन छुयो चहत असमान।

    फेन उठावत, दौर्यो आवत तटन गिरावत तोर।

    बारंबार तरंग उठावत करत प्रलय सम सोर।

    हरे पहारन की चोटी पै खिले फूल बहुरंग।

    हरे जाल में फँसे आय जिमि नाना रंग बिहंग।

    जहँ तहँ झरने झर अनेकन फैलाए बहु धार।

    तव गुनगान हेत जिमि खोल जीह हज़ार-हज़ार।

    सब दिन तुम सों यही बीनतो हमरी हे घनराय!

    यह तुम्हरो भारत चित सों कबहूँ नहिं बीसर जाय।

    रहे सदा हमरे चित महं अंकित चव चित्र ललाम।

    सदा बसौ हमरे नैनन महं प्यारे नवघनश्याम॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 648)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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