वरदान

wardan

खींचा खल दु:शासन से जब

अंतरहित द्रौपदी-दुकूल,

डाली विदुरादिक ने उस पर

सभा-मध्य धिकरूपी धूल।

तब राजा धृतराष्ट्र शोक से

मन में बहुत अधीर हुए,

वह दुर्दश्य बिना देखे भी

उनके नेत्र सनीर हुए॥

पुत्र-विवश होने पर भी वे

इस अनीति को सह सके,

उन नीचात्माओं की निंदा

किए बिना वे रह सके।

दुर्बल जन यद्यपि चित्त में

ध्यान धर्म का धरते हैं;

किंतु लोक निंदा से वे भी

एक बार तो डरते हैं॥

कहती हुई दीन वाणी त्यों

सहती हुई व्यथा भारी,

बहती हुई शोक-सरिता में

प्रिया पांडवों की प्यारी।

पांचाली को निकट बुला कर

उसे उन्होंने धैर्य दिया,

और बहुत आश्वासन देकर

किसी भाँति कुछ शांत किया॥

“मेरी सब बहुओं में कृष्णे!

तू सर्वोपरि प्यारी है,

रूप शील गुण गुरुतादिक में

तू सबसे ही न्यारी है।

सुनने पड़े मुझे सम्मुख ही

कातर वचन हाय! तेरे,

क्यों दृष्टि के साथ श्रवण-भी

नष्ट किए विधि ने मेरे!

दुर्योधन-दु:शासनादि का

महा अभागी पापी तात,

लज्जित होता हूँ मैं तुझ से

कहते हुए आज कुछ बात।

किंतु दया कर हे कल्याणी,

निज आदर्श शील को सोच,

मुझे शांति देने को कुछ भी

माँग बहू! तू नि:संकोच॥”

सुनकर उनके वचन द्रौपदी

गद्गद् हुई, बोल सकी,

कहने की इच्छा रहते भी

विविश वह मुँह खोल सकी।

द्रवित हुए करुनाथ जानकर

और अधिक उसको रोता,

हा! जो हुआ होता यदि वह

तो यह क्या अच्छा होता!

खड़ी हुई लज्जित सिमटी-सी

निश्चल नीचा बदन किए,

बड़े-बड़े आँसू टपकाती

दीनों का-सा भाव लिए।

हाथ जोड़कर बोली कृष्णा

जब करुणा कुछ शांत हुई,

उस कल्याणी की वह वाणी

सविनय सरल नितांत हुई॥

“तात! तुम्हारी अनुकंपा ही

बहुत मानती हूँ मन में

होऊँगी मैं तुष्ट तुम्हारी

आज्ञा ही के पालन में।

फिर भी जो वर ही देना है

तो बस मुझे यही दीजे—

पराधीनता के बंधन से

मुक्त पांडवों को कीजे?”

“एवमस्तु” कह कर तब नृप ने

फिर उससे इस भाँति कहा,

“माँग और भी जो जी चाहे

धीरज धर आँसू बहा।

दासी-दास राज्य रत्नादिक

सब कुछ लौटा दूँगा मैं,

जीती हुई शकुनि के द्वारा

वस्तु कोई लूँगा मैं॥”

तब राज्यादिक को माँगकर

बोली यों उनसे कृष्णा—

“मुझे और कुछ नहीं माँगना

अच्छी नहीं अधिक तृष्णा।

जो पुरुषों में पौरुष होगा

तो सब कुछ हो जावेगा,

तात! अन्यथा यह भिक्षा का

वैभव फिर खो जावेगा॥”

स्रोत :
  • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 88)
  • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
  • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
  • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
  • संस्करण : 1994

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY

जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

पास यहाँ से प्राप्त कीजिए