वक़्त

waqt

अंशू कुमार

और अधिकअंशू कुमार

    कलाई पर लगी घड़ी,

    सबका वक़्त कहाँ बताती है,

    नहीं बताती वह नौकरों और औरतों का वक़्त,

    वक़्त सबका नहीं होता—

    कुछ लोगों की ज़िंदगी

    वक़्त को बनाए रखने के लिए होती है

    वक़्त के हिसाब से भागते रहने के लिए,

    एक नौकर और एक औरत रात में भी

    ख़ाली नहीं सोते,

    अगले सुबह के समय को

    पकड़ने की तैयारी में सोते हैं

    दुपहरी मे चढ़ती धूप के ताप से,

    चंद सेकेंड सुस्ताने की फ़िराक़ में,

    मुर्ग़े की बाँग के साथ शुरू होती है

    उनकी सुबह

    मज़दूर मंडी मे काम बँटने से पहले

    मालिको के उठने से पहले

    आँगन में धूप निकलने से पहले

    चूल्हे पर खाना बना लेने तक की होड़ में

    तय होता है सुबह का उठना

    'वक़्त' सबका वक़्त नहीं बताता

    घड़ी ग़रीबों, नौकरों, और औरतों की

    कलाई पर बाँधी जाती रही

    ताकि मालिकों को वक़्त पर

    सब कुछ मिलता रहे

    माँ ने कहा था वक़्त सबका आता है

    और वह हमेशा के लिए चली गई

    उसका वक़्त ठहर गया

    लेकिन आया नहीं

    माज़ी और मुस्तक़बिल के बीच

    फँसा जो मौजूदा मैं हूँ

    वह मैं होकर भी मैं नहीं हूँ

    क्योंकि वक़्त से मेरी लड़ाई हो रखी है

    और तुम—क्या तुमने देखा है

    ऐसे किसी एक ग़रीब और औरत को?

    अगर नहीं देखा तो यक़ीन करो मेरे दोस्त

    तुमने घडी वक़्त और ज़िंदगी नहीं देखी!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अंशू कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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