आलोड़न

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मोना गुलाटी

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मोना गुलाटी

और अधिकमोना गुलाटी

    उसकी तालाश करने के लिए मुझे

    कभी पहाड़ के

    उस पार नहीं जाना पड़ा जहाँ

    ध्वनियाँ गुम हो जाती हैं और सन्नाटा

    आभ्यंतर में डूबती हुई आवाज़ का चीत्कार हो जाता है!

    उसके लिए मुझे कभी हाथ उठाकर

    आकाश का

    आह्वान नहीं करना पड़ा :

    इसमें कोई झूठ नहीं है मेरे दोस्त

    कि मैंने कभी

    उसे ढूँढ़ने की कोशिश नहीं की,

    मैंने कभी उसे अपनी आँखों हथेलियों या जाँघों में

    छुपाने का प्रयास भी नहीं किया!

    मैंने कभी नहीं कहा उसे

    कि तुम आओ और देखो

    मेरे साथ

    आँधी में बौखलाए परिंदो को!

    देखो मेरे साथ,

    धूप की तपिश या फिर

    मेरे में ही रहो

    होकर लिप्त मग्न; मेरे कंधों को सहलाओ और

    पिघलता हुआ झरना हो जाओ,

    चमकती हुई धूप हो जाओ,

    खिलते हुए फूल हो जाओ!

    इसमें कोई झूठ नहीं कि

    मैंने उसे कभी नहीं बुलाया

    कभी नहीं कहा

    कि मेरा साथ दो और मुझे

    देश-देशांतर की यात्राओं पर ले जाओ :

    मेरे

    साथ झुको

    और

    बिखरी हुई आवाज़ों को समेट लो, और उन्हें

    रक्त से भर दो!

    मैंने उसका कभी आह्वान नहीं किया किसी मंत्र से;

    मैंने उसे कभी देखा नहीं; मेरे पास उसकी

    पहचान का कोई भी चिह्न नहीं है।

    मुझे तो इतना भी नहीं मालूम कि वह अपनी

    बरौनियों का पसीना हथेलियों से पोंछता है या

    किसी सफ़ेद कबूतर के पंखों से!

    उसके संबंध में मैंने कभी कोई जिज्ञासा

    नहीं की; मैंने

    उसके लिए

    कभी कोई प्रतीक्षा नहीं की :

    इस सबके बावजूद वह

    मेरे घुटनों तक सरक आया है

    वह

    तुम्हारी आँखों का पारदर्शी आवरण बन गया है; वह

    तमाम कंधों को तराशता हुआ निकल गया है; भीड़ में।

    वह बार-बार इसी व्यवस्था में जाता है : बार-बार

    सभी रंगों का ख़ून एक कर देता है : बुलंद!

    मैंने, तुमने किसी ने भी उसकी

    तलाश नहीं की;

    पर वह है

    ऊपर से नीचे तक बहता हुआ जीवंत लावा! वह

    हमेशा आता है पुच्छल तारे-सा : और

    उल्का-पात की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।

    मैंने उसे नहीं बुलाया :

    मैंने उसे देखा भी नहीं;

    इस सबके बावजूद वह

    मेरे घुटनों तक सरक आया है :

    मुग्ध करता हुआ

    आमंत्रण : और

    मेरे पाँवों मे ज्वारभाटा उठने लगा है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 114)
    • रचनाकार : मोना गुलाटी

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