विश्व की गति

vishv ki gati

वेण्णिकुलम गोपाल कुरुप

और अधिकवेण्णिकुलम गोपाल कुरुप

    तटों को फलपूर्ण बनाने के लिए,

    जल प्रदान करके लोक का पालन करने के लिए,

    सब क्लेशों को धीरता से सहन करती हुई

    वाहिनी प्रति-निमिष दौड़ रही है।

    अपनी गति से आदित्य की तीव्र किरणों की

    ताप-शक्ति का शमन करके, दिन-प्रति-दिन

    समस्त चराचर लोक को चलाता हुआ

    सदागति पवन सर्वत्र मंगल फैलाता है।

    घोर अंधकार के साथ बिना संधि किए,

    निरंतर युद्ध करते हुए, दुखियों को सँभालते हुए, दिन-रात

    सुंदर प्रकाश देते हुए खड़े रहते हैं—जगत के

    सेवकोत्तंस, सूर्य-चंद्र आदि।

    भूमि के हृदय को शीतल करता हुआ, उसे अपनी

    बाल्यसखी मानकर पारितोषिक देने के लिए,

    फेनरूपी स्वेद से युक्त, सदा

    प्रयत्नशील रहता है महासागर।

    ये महाशक्ति स्वरूप सब

    कर्मकांड का रहस्य जब स्पष्ट कर रहे हैं, तब

    अंधे बनकर खड़े रहने वाले मूर्ख के रक्षक

    धर्मदेव कौन-कौन हैं—मैं नहीं जानता।

    आलस्य द्वारा हाथ बढ़ाकर सम्मुख रखे गए

    थाल में क्या है—शून्यता के सिवा?

    परिश्रम में दैव और भव्य मिल जाता है।

    उसके बराबर श्रेष्ठ इस संसार में और क्या है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 671)
    • रचनाकार : वेण्णिकुलम गोपाल कुरुप
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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