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विदा होती बेटियाँ

vida hoti betiyan

अरविंद यादव

अरविंद यादव

विदा होती बेटियाँ

अरविंद यादव

और अधिकअरविंद यादव

    विदा होती बेटियाँ

    डगमगा देती हैं उस धैर्य को

    जिसकी उच्चता को देख

    झुक जाती हैं आकाश की भी आँखें

    दरका देती हैं धरती के उस अंतस्तल को

    जिनको आँचल में समेट कभी

    मिट जाती थी धरती के अंतर की तपन

    पिघला देती हैं उन पत्थरों के भी हृदय

    जिन पर नहीं पड़ता है कोई प्रभाव

    बड़े से बड़े आघातों का

    विदा होती बेटियाँ

    जब देखती हैं चारों ओर

    तो छूटती दिखाई देती हैं गलियाँ

    जिनके साथ खेलते हुए गुज़ारे थे

    जीवन के जाने कितने वसंत

    अनमना-सा दिखाई देता है

    चबूतरे पर खड़ा वह नीम का पेड़

    जिसकी छाया में सिमट मिट जाते थे

    खेल-खेल में गलियों के साथ हुए

    पुराने से पुराने गिले-शिकवे

    सोचते हुए जायसी की यह पंक्ति,

    एहि नैहर रहना दिन चारी

    उदास लुटा-पिटा-सा दिखाई देता है वह घर

    जिसकी उपस्थिति से खिल-खिलाता रहता था हमेशा

    उसका चेहरा

    हमेशा के लिए छूटता दिखाई देता है

    वह आँगन

    जिसमें उठते-गिरते धीरे-धीरे बड़ी हुई थीं

    जीवन की अनंत इच्छाएँ

    गला पकड़ बिलखती दिखाई देती हैं

    घर की किलकारियाँ

    जिन्हें देख सुबक उठती हैं

    अनगिनत आँखें

    विदा हुई बेटियाँ विदा होकर भी नहीं होती हैं विदा

    वे लौट आती हैं अचानक ज़ुबान पर

    जब मुँह लटकाए थका-हारा दिन

    रखता है क़दम घर की चौखट पर

    लिए अनबुझी प्यास

    पुकार उठती हैं उन्हें अचानक

    थाली में रखी रोटियाँ

    देखकर थाली से

    नमक और अचार को नदारद

    वे उतर आती हैं सीने में

    हाथों में लिए सुई-धागा

    जब दिखाई दे जाती है सहसा

    क़मीज़ की उधड़ी हुई सीवन

    और टूटे हुए बटन

    खींच ले जाते हैं उन तक अनायास

    हैंगर पर टँगे उदास कपड़े

    जिनके कोमल हाथों के स्पर्श से

    निखर जाता था उनका सौंदर्य

    वे छोड़ जाती हैं जाने कितने निशान

    जाने कितनी स्मृतियाँ

    जिन्हें याद कर

    चली आती हैं वे अचानक विदा होकर भी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरविंद यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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