उत्सव में औरतें

utsaw mein aurten

विनोद पदरज

विनोद पदरज

उत्सव में औरतें

विनोद पदरज

और अधिकविनोद पदरज

    उत्सव में आई हैं वे औरतें

    पाउडर की घनी परतों के पीछे भी

    नहीं छिप सकी हैं

    आँखों की तलहटी की कालिख

    होंठ हँसते हैं पर मन उदास हैं

    कहाँ खो गईं इनके भीतर की वे लड़कियाँ

    जिनकी किताबों में मोरपंख दबे थे

    जो मेघों की छाँह में

    ख़ूब दूर-दूर तक दौड़ना चाहती थीं

    बालुई रेत पर

    जिन्हें हम ख़रगोश और चंचल हिरणियाँ कहते थे

    उनका आखेट कर लिया गया

    वे लकदक वस्त्रों में हैं

    जिन्हें ख़रीदने को ही

    उन्होंने सुख समझा

    और भूल गईं

    कि किस सूर्य के ताप से

    हौले-हौले खिलती थीं

    आत्मा की कली

    किस मेघ के नाद से

    आँखों के घौंक हरे हो जाते थे

    यूँ तो कहती हैं वे

    कि उन्होंने किसी से प्रेम नहीं किया

    मगर उनकी पीठ पर नील पड़े हैं

    जिनसे पता लगता है

    कि बरसों बाद भी

    सोते में कभी-कभी कोई नाम

    उनके होंठों से

    हरसिंगार के फूल जैसा झर जाता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विनोद पदरज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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