जैसे अब कुछ भी बचने को न हो
और हम फिर भी प्रयासरत
टुकुर-टुकुर ताकती आँखों में
आती और फिर दबा ली जाती
आँसू की बूँदें
बार-बार बैठ जाता और
अस्तित्व को धकियाता-सा
हृदय और उसकी धड़कन
आशा फिर भी है मन में
जिसे कहने वाले छलना कहेंगे
महज़ भ्रम
पर हाथ में क्या है
सिवा उसके?
असह्य होती जाती पीड़ा और
शिराओं में रक्त का बढ़ता संचार
बार-बार धक्-धक् की ध्वनि से
हिलता-काँपता शरीर
मैं कुछ भी नहीं हूँ
और हूँ भी तो क्या—
इन प्रश्नों से टकराते-टकराते
अब प्रश्नों से उकताहट होती है
जैसे ख़ुद से एक कोफ़्त होने लगी हो
उस निर्मम निस्सहाय वातावरण में
मेरे होंठ नीरव हैं
पर कहीं चीख़ है
कहीं तेज़ी से चलती साँस
एक अजीब-सी गंध
जिससे मितली-सी होती है
पर फिर भी वहाँ जमे रहना
ज़रूरी है, निहायत ज़रूरी!
हे प्रियतम!
कुछ पल को तुम इंसान हो जाओ
मैं भी इंसान हो जाना चाहती हूँ
कुछ पल को!
- रचनाकार : शशि शेखर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित
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