तूफ़ान की सहस्र पद-ध्वनि

tufan ki sahastr pad dhwani

कुंजबिहारी दास

कुंजबिहारी दास

तूफ़ान की सहस्र पद-ध्वनि

कुंजबिहारी दास

और अधिककुंजबिहारी दास

    मिट्टी को सोना बनाकर

    वह ख़ुद हो गया मिट्टी

    छाया की तरह फूस की झोपड़ी में रहकर

    उसने गढ़ दी तुम्हारे लिए ईंट की भट्टी।

    छाती का रक्तदान देकर

    उसने गुलाब की कलियाँ खिलाईं

    तुम्हारे बाग़ में, गर्मी आग में

    उसने झुलसाया अपने शरीर को

    तुम्हें शुद्ध सोना बना दिया

    और ख़ुद ही राख बनकर बिखर गया।

    ख़ुद होकर दिगम्बर, तुम्हें राजकीय पोशाक से ढक दिया

    तुम्हें बेफ़िकरी दी,

    और वह स्वयं चिंता में निःशेष हो गया।

    ख़ुद हुआ अमा-छाया

    और तुम्हारे घर को उसने सुख-शांति और

    पूर्णिमा के चाँद से सजा दिया।

    जीवन के सभी सिंगार

    उसने तुम्हारे लिए छोड़ दिए

    तुम्हारे घर को फूलों की सुगंध से सुवासित करके

    स्वयं दुर्गध बनकर रह गया।

    ख़ुद होकर छंदहीन

    उसने तुम्हारे जीवन को छंदमय बनाया।

    अपने जीवन-रक्त को मथकर

    सभी सार उसने तुम्हें दे दिया

    तमाम रोगों को स्वयं धारण करके

    उसने तुम्हें स्वस्थ बनाया

    उसकी राह काँटों से पटकर

    अगम बन गई।

    उसके पसीने के सागर से तुमने उसकी लक्ष्मी का हरण किया

    और वह तुम्हारी वीणा में वाणी भरकर

    स्वयं मूक हो गया।

    उसकी कोई शिलालिपि नहीं, कोई पदचिह्न नहीं

    वह परिचयहीन परिचय है।

    विस्मृति के तट पर उसका जीवन-जयगान

    रेत पर लिख दिया गया

    भाग्य लेख को ही प्रबल मानकर

    वह कभी आया था,

    पता नहीं कब गहन अंधकार में

    विलीन हो गया।

    धँस गया बाढ़ के पानी में

    दिखाकर कंकाल-मात्र

    राह की कठिनाई ने निगल लिया उसके जीवन को।

    जिंदगी छिन्न-भिन्न होकर उड़ गई चिमनी के धुएँ के साथ

    किंतु उस दानवी यंत्र ने उसकी भाषा को समझा नहीं

    और लुट गई उसकी सभी आशाएँ शत-सहस्र परमाणु बनकर

    पुकार-पुकार कर मिट्टी को

    उसने अपनी लाश उपहार में दे दी।

    रक्षा नहीं कर सकता जो अपने सम्मान की

    अल्प धन के लिए जो माँगता है भीख दस्यु से

    वह ध्यान करेगा,

    भगवान्?

    वह क्या कमाएगा पुण्यराशि स्वर्ग वैकुंठ पाने को?

    एक हत्या-अपराध में

    जहाँ भेज दिया है—

    ‘तुम्हें जेल हो, तुम्हें फाँसी का तख्ता मिले!’

    किंतु शत-सहस्र हत्या के भागी हत्याकारी

    परम संन्यासी बने

    सौध में बैठे

    योग-साधन में लीन है,

    इसलिए अश्रु-सिंधु में

    रेगिस्तान की अपार बालुका-राशि पर

    उठा है तूफ़ान

    पलातक देव भगवान्।

    पलातक अतीत का प्रेत

    श्मशान की छाया

    कूटचक्री की इन्द्रजाल-माया

    पलातक सब रोगव्याधि, मनुष्य के शिकारी, समाधि

    झड़े हुए पन्ने के समान।

    जहाँ सुनी थी एक दिन

    अत्याचारी के

    खड्ग की झनझनाहट,

    आज वहीं नवयुग का अग्रदूत

    तूफ़ान की सहस्र-पदध्वनि

    सुनता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 59)
    • रचनाकार : कुंजबिहारी दास
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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