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अंतजर

antjar

सूने मरुथल में मुरझाया, औ' सूखा-सा

जहाँ बरसती आग, दहकती जहाँ धरा है,

उस पूरे सुनसान जगत में एक अंतजर

क्रूर संतरी जैसा वह विष-वृक्ष खड़ा है।

प्यासे, जलते मैदानों में उसे प्रकृति ने

एक दहकते हुए कुदिन में जन्म दिया था,

उसकी शाख़ाओं की मुर्दा हरियाली को

और जड़ों को उसने विषमय तभी किया था।

दुपहरी की गर्मी से जब तप उठता है

ज़हर छाल से उसकी टप-टप तब झरता है,

और शाम को जिस क्षण ठंडा हो जाता है

रूप राल का बिल्लौरी तब वह धरता है।

नहीं डाल पर उसकी कोई पक्षी बैठे

और बाघ भी पास उसके कोई जाए,

केवल काली आँधी ही इस मृत्यु-वृक्ष

झपटे, भागे दूर, हवा में ज़हर बसाए।

और अगर भूले से कोई बादल आकर

ऊँघ रहे उसके पत्तों की प्यास बुझाता,

उसकी गीली डालों से तब बूँद-बूँद बन

विष ही तपती बालू पर नीचे गिर जाता।

किंतु किसी राजा ने अपने दास विवश को

इसे खोजने को जाने का हुक्म सुनाया,

वह बेचारा शीश झुका चुपचाप चल दिया

और ज़हर ले अगले दिन वापस घर आया।

लाया घातक राल और वह शाख़ाएँ भी

जिन पर पत्ते सूखे-सूखे, मुरझाए थे,

और दास के पीले-पीले विकृत मुख पर

ठंडे स्वेद कणों के झरने बह आए थे।

ले आया, लेकिन दुबलाया और कुटी में

फटी दरी पर जा बिल्कुल बेजान गिरा वह,

चरणों में ही उस अजेय स्वामी के अपने

तड़प-तड़प कर ऐसे ही असहाय मरा वह।

उस राजा ने, उस स्वामी ने, उसी ज़हर से

ज़हरीले औ' आज्ञाकारी तीर बनाए,

और मृत्यु के दूत बने थे जो शर घातक

निकट, दूर, सब ओर, सभी वे तीर चलाए।

स्रोत :
  • पुस्तक : अलेक्सान्द्र पूश्किन चुनी हुई रचनाएँ (खंड-1) (पृष्ठ 24)
  • रचनाकार : अलेक्सान्द्र पूश्किन
  • प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन, मास्को
  • संस्करण : 1982

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