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नाटक

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नीलाभ अश्क

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और अधिकनीलाभ अश्क

    सूखे बीमार चेहरों पर ख़ूँख़ार लपटें। आँखों में

    जीवन भर अभाव। और, बेहतर बनने की

    चाह। बुझती हुई। अपने को तबाह करने की

    ख़्वाहिश और अपने आप पर किए गए अत्याचारों

    से खोखले पीले शरीर।

    अपने सत के निरंतर बलात्कार से श्लथ—

    नपुंसक आत्माएँ। कभी-कभी चेहरे पर प्रतिभा

    की दहक। पर वह भी सिर्फ़ घातें सोचने

    में। सड़कों पर लगातार चक्कर लगाते

    पैर। और भीड़ में अलग नज़र आते सरापे।

    वे तुम्हारा विश्वास जीत लेते हैं।

    अपने विस्त्रंसन पर ख़ुशी। और तुम्हें धोखा

    दे जाने की जानकारी। उनके व्यवहार में।

    उनकी चेष्टाओं में बर्बरता और कामुकता।

    या फिर अस्फुट फक्कड़ शब्दों में आकर्षण।

    तुम उन्हें चाहे बिना नहीं रह सकते।

    उनके हाथों पर तुम्हारा रक्त। साफ़ दिखता हुआ।

    या बाँहें तुम्हारी समर्पित देहों से भरी हुईं।

    तुम्हें जीत लेने का विश्वास। और अपने

    जीतने का विचित्र या जुगुप्सामय आनंद—

    उनकी मुद्राओं में।

    पर तुम इसे नहीं देख सकते हो।

    इस पतनोन्मुख। सर्वत्र-व्याप्त। अंतहीन नाटक

    को देखने के लिए केवल मेरे पास ही वह

    नेपथ्य है। मैं ही इस नाटक का एकमात्र दर्शक हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल जमा-1 (पृष्ठ 24)
    • रचनाकार : नीलाभ
    • प्रकाशन : शब्द प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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