अगर कोई मुझसे कहता, “तुम्हें आज शाम को मरना है, यहीं,
लिहाज़ा दरमियानी वक्त में तुम क्या करोगे?
मैं कहता :
कलाई घड़ी देखूँगा, एक गिलास जूस पियूँगा,
एक सेब चरचराऊँगा और फ़ासिले पर रेंगती
उस चींटी को निहारूँगा जिसने दिन भर की
ख़ूराक हासिल कर ली है।
फिर कलाई घड़ी देखूँगा :
अभी शेव और गुसल का वक़्त है।
एक ख़याल दिमाग़ में उभरेगा, कि लिखना
शुरू करने से पहले किसी शख़्स को ख़ुशनुमा
दिखना चाहिए
लिहाज़ा नीले रंग की एक पोशाक पहनूँगा
और दोपहर तक डेस्क पर काम करूँगा, बग़ैर
इस बात की परवाह किए कि अल्फ़ाज़ बेरंगत हैं
सफ़ेद-यकूदम सफ़ेद
अपना आख़िरी खाना तैयार करूँगा
दो गिलासों में शराब ढालूँगा,
एक अपने लिए
दूसरा किसी अचानक आ टपकने वाले मेहमान
के लिए
फिर दो ख़्वाबों के दरमियान एक झपकी लूँगा
मगर मेरे खरटि की आवाज़ मुझे जगा देगी।
फिर कलाई घड़ी देखूँगा :
पढ़ने के लिए वक़्त अभी है
दाँते को एक बाब1 और
आधा मुअल्लका2 पढूँगा
और देखूँगा कि मेरी ज़िंदगी कैसे अगसों में जाती है
और क़तई हैरत नहीं होगी कि उसकी जगह कौन लेता है
ठीक ऐसे ही?
ठीक ऐसे ही...
फिर?”
बालों में कंघी करूँगा
और नज़्म फेंक दूँगा... यह नज़्म... कूड़ादान में
इटली की ख़रीदी नई क़मीज़ पहनूँगा
स्पानी वायलिनों के साज़ पर
फिर—
ख़ुद को अलविदा कहूँगा
चल पहूँगा क़ब्रिस्तान की जानिब...
- पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 339)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक सुरेश सलिल, कैथराइन कोहैम
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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