एकलव्यों के देश में
हम तो उचकी हुई कील भी नहीं थे
फिर न जाने क्यों हर बार हथौड़ा हमारे ही सिर पड़ा
हम साँस भी इतने आहिस्ते लेते थे
कि किसी भगवान, किसी ख़ुदा की
नींद में कोई ख़लल न पड़े
करवट बदलते हुए हमेशा ध्यान रहा कि
चादर पर सिलवट भी न पड़ने पाए
भूख भर रोटी नहीं माँगी
स्वप्न भर नींद भी नहीं
प्यास भर पानी
और ज़रूरत भर बारिश के लिए भी ज़िद नहीं की
चादर के सिकुड़ने की शिकायत नहीं की
बस पैर ही समेटते रहे
पेट पर हाथ रख कर
आरती गाते थे हम
कि पूर्वजन्म का पाप है हमारी भूख
एक दिन अपनी तरफ़ से भूखे रहते
छह दिन न जाने किसकी तरफ़ से
अपनी तरफ़ की भूख को व्रत कहते
और बाक़ी भूख को क़िस्मत
व्रत से क़िस्मत सुधारते हम बेशऊर कारीगर थे
हम जीवित रहने के लिए मरने को तैयार थे
रेंगना जीने के लिए कम पड़ रहा था
हमने जुलूसों में अपने आपको इत्यादि तक सीमित रखा
पर गोली हमें ही लगी
जब दंगे हुए शहर में हम काम से लौट रहे थे
ठेले पर अंडे बेच रहे थे
सब्ज़ी की रेहड़ी लगाए हुए थे
टपरी पर चाय बना रहे थे
रिक्शा चला रहे थे
पर हम ही मारे गए
जबकि जीने के लिए हम मरने को तैयार थे
हमारे बच्चे तलवार की नोंक पर रख दिए गए
हमारी औरतों का पेट चीरा गया
घर जला दिए गए
गाँव लूट लिए गए
पर हर बार हम काम पर लौटे
काम से लौटने के लिए
हम कभी अलग से नहीं दिखे
हर बार संख्याओं की तरह शामिल थे भीड़ में
मृतकों की संख्या की तरह
बेरोज़गारों की संख्या की तरह
भूखमरी के शिकारों की संख्या की तरह
बाढ़ और सूखा पीड़ितों की संख्या की तरह
आत्महत्याओं की संख्या की तरह
वोटों की संख्या की तरह भी
और चोटों की संख्या की तरह भी
एकलव्य के देश में उँगली कट जाने की घटना
लोकतंत्र के पर्व की तरह मनाई जाती रही
और कहा गया जो जीवन और मृत्यु में
अपनी इच्छा से जीवन भी नहीं चुन सकते
वे देश की सरकार चुन रहे हैं
हमारे पास चुनने का अधिकार नहीं था
चुनने का भ्रम भर था
जबकि चुन रहे थे गिद्ध
रह रह कर हमारी देह
चुन रहे थे दीवारें
चुन रहे थे हमें
चुपचाप मर जाने के लिए
ये चुनाव-पर्व की तरह मनाए जाते
जबकि रोना था छाती पीट कर
कि चुन लिए गए हम शिकार के लिए
कि चुन दिए गए हम दीवार में
हम असंपादित कविता की तरह
संकलनों से बाहर रहे
बेपता चिट्ठी की तरह भटकते रहे
व्याकरण के दोष से भरे वाक्य की तरह
तिरिस्कृत रहे
किसी तरल स्वप्न की तरह
विस्मृत रहे
जबकि होना यह चाहिए था
कि राजा की गर्दन पकड़ कर लटक जाएँ हम
ताबीज़ की तरह नहीं
फाँसी के फंदे की तरह
उसके पाँव से लिपट जाए
बिलखती हथेलियों की तरह नहीं
कँटीली झाड़ियों की तरह
हम याद करें कोई भूली हुई बात
और छलाँग लगा कर सागर पार कर जाएँ
पत्थरों पर अपनी इच्छाएँ लिखें
और वे तैरने लगें पानी में
हम भूख का एक पुल बनाएँ
और रोटी तक निकल जाएँ,
सिर ताने हुए शान से
अपने नुकीले हाथों से चीर दें सिंहासन
और अपना नाम लेकर बताएँ
कि ज़रूरी है एक एक आदमी
उसकी ज़िंदगी और मौत
उसके सपने और नींद
उसकी बारिश और उसकी धूप
हम अपने गाँवों से निकलें
हमने शहरों, अपने घरों से
और राजधानी में जाकर कहें
कि देश सिर्फ़ राजधानी नहीं होता
हम पगलाए हुए से दौड़ें इधर-उधर
और सारी सरहदें टूट कर बिखर जाएँ
द्रोणाचार्यों से कहें कि एकलव्य की नींद टूट गई है
उसने उँगली कटाने से मना कर दिया है
वह अपने अँगूठे को बचाने के लिए जान भी दे सकता है
महल की दीवारों पर अपने ख़ून से लिख दें
आटा-दाल-चावल का भाव
और अपने पसीने के पैर छू कर वचन दें उसे
कि कोई नहीं कर सकेगा उसका अपमान
पर अफ़सोस, बेहद अफ़सोस
कि सिर्फ़ जीने के लिए जीते रहे
कल देखने की इच्छा में गर्दन तक धँसे हम
आज सब कुछ सह सकते थे
वह सब कुछ जो जान भी ले सकता था
वह सब कुछ जो एक मनुष्य को कभी नहीं सहना चाहिए
हम जीने के लिए इतने तरल हुए
इतने सरल हुए
कि जीने के लिए मर भी सकते थे हम
रेंगना कम पड़ रहा था जीने के लिए।
- रचनाकार : अनुराग अनंत
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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