तीन सपने

teen sapne

सिर्पी बालसुब्रह्मण्यम

और अधिकसिर्पी बालसुब्रह्मण्यम

    1

    माया लोक की

    आश्चर्य भरी गलियों में

    स्वर्णिम पत्रधारी घना वृक्ष

    उलझ कर फैलने वाली रजत वल्लरी में

    मूँगा पुष्प, माणिक्य के फल।

    नीलमणि शाखाओं में

    हीरे की चोंच मरकत के पंख

    मोती सदृश नयन वाला

    एक पक्षी गाने लगा

    चुन्नट की तरह

    उतार-चढ़ाव

    सिकुड़ कर मुड़ते हुए

    दूसरी शाखा में

    बिजलीनुमा सर्प

    चमकते शैवाल सदृश चक्षु सहित

    नाचने लगा...

    पक्षी का गीत

    ज्यों ज्यों हुआ क्षीण

    जलप्रपात की तरह

    फिसल चला साँप

    दूसरी शाखा की ओर।

    धीरे-धीरे

    गीत रुक गया तो

    चाबुक की तरह उछला सर्प

    ज़मीन पर जा गिरा

    सिर अलग पूँछ अलग हो गए

    विपरीत दिशाओं में

    अदृश्य हो गए।

    तब...

    पत्तों के

    स्वर्ण हुए काले

    सीसे में बदल गए

    वल्लरियों की चाँदी

    हो गई रांगा-सी

    पुष्पों से निकली

    ऊलक जलने की दुर्गंध

    फलों के डंठल पर

    रक्त की बूँद

    गीत रुका तो वह पंछी

    धीरे-धीरे लकड़ी की प्रतिमा बना

    टुकड़ों में कटा सर्प

    गुटिकाएँ बन गया।

    2

    स्वर्णिम मकरंद का

    रेतीला मैदान

    हर जगह नन्हीं चिड़ियाँ...

    रुई की पोटली छितराती

    तट की लहरियों में

    अरुणिम पग धरती हुईं।

    इक नीली मत्स्य

    समुद्र को चीरती हुई ऊपर उछलती

    मणि सदृश चोंच से एक पंछी

    उसे लपकते हुए पंख फड़फड़ाता।

    एक रजत मत्स्य उछलती

    एक सुईनुमा चोंच

    उसे लपककर उठाती।

    धीरे-धीरे

    मत्स्य बड़ी होती

    नन्हीं चोंचों के

    किनारों से

    रक्त टपकने लगता।

    बृहदाकार तिमिंगिल

    सागर के उदर चीर देते

    पूँछ के थपेड़ों से

    जल नभ तक छिटकता

    राक्षसनुमा शार्क

    तटोन्मुख हो मुँह खोलती

    रेतीले तट पर

    फटे पंख

    टूटी चोंचें

    कच्ची अस्थियाँ...

    3

    हरित पीले पंख वाली तितलियाँ

    कँटीली झाड़ियों में

    भटकते भौंरे

    'रेलकीड़े'

    रामघोड़े

    चमकीले मोर पंख

    उसके तकिए के नीचे स्थित

    माचिस की डिबिया से

    बाहर आए।

    गालों पर

    चून-चूर्ण का लेपन

    तितलियाँ

    नभ के नील वर्ण में घुल गईं

    पैरों से 'गिटार' बजाता

    कानों के पास घूमता हुआ

    संगीत लहरियों में

    षट्पद तैरता हुआ गया।

    मोरपंखधारी

    रामघोड़े

    पैरों में रेंगने लगे

    जाँघों में खिसकने लगे।

    कमर में खुजली हुई

    वक्ष में ज़रा

    रोमांच हुआ

    नन्हीं मूँछों से चढ़ गए

    नासापुट में प्रविष्ट हुए

    कुरकुरी होने लगी

    चौंककर वह उठ गया।

    ऐसा लगा मानो

    भोर के समय नदी

    बहाकर ले जा रही हो उसे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक ग्रामीण नदी (पृष्ठ 36)
    • रचनाकार : सिर्पी बालसुब्रह्मण्यम
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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