लाल रंग

laal rang

आर. सुब्रह्मण्यन

और अधिकआर. सुब्रह्मण्यन

    सबेरे और शाम नभ के मैदान में

    देख मुझे मंत्रमुग्ध हो जाता है कवि

    कानन के शुक, उनकी चारु नासिका में भी

    भरा हुआ हूँ उसका सौंदर्य बढ़ाता मैं।

    बिंब के फल में भी वर्ण मेरे ही लख

    चुगते हैं चाव से उन्हें भी तोते सब

    मृदु अधर नारी के मुझसे ही भासते

    औ' प्रेमी के मन में उन्माद जगाते है।

    बहुत अधिक जल मे डूब नहलाने पर,

    रात कई निद्रारहित बिताने पर,

    आपे से बाहर हो क्रोध भड़कने पर,

    आग की लपट सम आँखों में भरता मैं।

    सुपारी पान औ' चूने के मेल से

    अद्भुत रूप से मैं पैदा हो जाता

    माथे पै' मोहते तिलक सिंदूर में

    मंगल सुहाग का चिन्ह दिखलाता मैं।

    कोमल, सुगंध भरा सुंदर गुलाब भी

    अपने में मुझको ही रखा मन मोहता

    जलाती परस से अनल की लपट भी

    भासती मेरे ही रंग से ज्वाला बन।

    प्रेम और ममता का रिश्ता है ख़ून से

    उभरता पर यह भी मेरे ही रंग से

    ईश की सृष्टि में एक हैं प्राणी सब

    समता दिखलाता ख़ून का रंग ही

    कवि मन से मुझको भी चीन्हा पहचाना है।

    कंबन ने उसका भी हूँ मैं ही मन-भाया

    लाल रंग है मेरा नाम और मेरा है।

    काम भी जीवन को रंगीनी देने का।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 343)
    • रचनाकार : पुत्तनेरि आर. सुब्रह्मण्यन
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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