हे हिमालय!

he himalaya!

नादि

नादि

हे हिमालय!

नादि

और अधिकनादि

    हे हिमालय! हे हिमाचल!

    तेरा बृहद् आकार, तेरा महान् व्यक्तित्व।

    तेरी रत्न-विभूतियाँ, तेरी अचल भावना।

    नैन लुभाते दृश्य, लगते दिव्य, भव्य

    आकर्षित करते सहज ही हृदय।

    विभूति महान्। हे हिमगिरि विशाल!

    युद्ध हुए, नहीं खिन्न हुआ तू

    मरे मिटे लोग, हरसा नहीं तू

    आया भी अकाल डरा नहीं तू

    दहल उठे दिल, गला नहीं तू।

    मानव निर्मित प्रवचक यत्र

    मानव का अंत कर रहा कैसे—

    देखकर पत्थर बना है तू?

    अथवा अखिल विश्व को ख़ुद ही

    श्रेष्ठ सुजलयुत करने हेतु

    सुहाना, हिम का नीर धरा तू?

    नभ से सटता तेरा मस्तक

    लखने वायुयान से आए

    क्या बुद्ध हुआ तू शाप दिया क्या—

    मस्तक मेरा जो भी देखे

    मस्तक उसका और देखे?

    किंतु बताऊँ क्या हे गिरिवर!

    वज्र हृदय का है यह मानव—

    उसके अथक परिश्रम का ही

    जैसे सिरमौर बना, तेनसिंग

    कर आया शिर-दर्शन तेरा

    पाया नाम-मान-सम्मान।

    हुआ हौसला पूरा उसका,

    सफल परिश्रम, अमर बना वह,

    उसका नाम रहेगा, जब तक तू है रहता।

    फलतः हिमगिरि! तू अपना अब

    फर्ज़ निभाना—कामरहित हो

    अश्रु बहाते, विवश विश्व को,

    शीतल जल की धार बहा

    रसमय कर जाना।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 337)
    • रचनाकार : नादि
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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