आइ वातावरणमे अछि तप्त युग केर ताप
भैरवी झंझाक गतिमे झरत जगतक पाप॥1॥
तार स्वप्न क टूटते जागरण भैरव गीत
वर्त्तमानक चरण-घाते चूर्ण पतित अतीत॥2॥
कोनहु कोनहिमे मलिन अछि जकर क्षीणालोक
जे न जगबय ज्वाल उर, ने हरय तिमिरक लोक॥3॥
क्षणिक दीपक मृत्तिकाक न आइ बचत इजोत
भैरवी झंझाक झो कक कतहु अछि न इरोत॥4॥
आइ जन-मनमे न भ्रम हो कतहु मुक्ता-सीप
द्वीप-द्वीपक तिमिर-हारी उगओ गगनक दीप॥5॥
आइ केशव-ग्रीवमे नहि छजत गुञ्जा माल
सिन्धु मथि प्रस्तुत जखन अछि कौस्तुभ मणि-माल॥6॥
विद्युतक ई क्षणिक विलसित बन्द युग-युग हेतु
महापवनक वेग चालित भिन्न मेघक सेतु॥7॥
इन्द्र-धनु नव रंग रंजित स्वयं लोपित क्षुद्र
कयल ज्या योजित अपन पिनाक जखनहि रुद्र॥8॥
नहि पिपासित भूतलक हित लघु जलक ई कूप
उमड़ आयल गगन-तटमे जखन मेघ स्तूप॥9॥
आइ नहि नूपुरक रुन-झुन वेणु-वीणा-शब्द
गगनमे गर्जल जखन गम्भीर स्वरमे अब्द॥10॥
कामिनी-यौवन न पार्थक रुचि-विलासक वस्तु
पाशुपत पूजित जकर शुचि लक्ष्य तपसँ अस्तु॥11॥
घिचत कृष्णा—चीर दुःशासनक नहि जे शक्ति
चढ़ल कृष्णक अंगुलिक ब्रण-बद्ध वस्त्रक भक्ति॥12॥
स्वर्ण पुर-उद्यान उजड़त मरुत सुतहि क हाथ
कनक-मृग छल हरल जे खल मैथिली दशमाथ॥13॥
नहि निशा-पट तिमिर क्षालित नखत फेनक विन्दु
किरण-माली उदित होइछ पूर्ण राका-इन्दु॥14॥
मास मधु की लय मनाओत दग्ध उर उद्यान?
विषुव रेखा टपि उगल छथि भानु दिग् ईशान॥15॥
मेघ-माला सजल झरते गलित नीरक गर्व
देखु गगनक फाँकमे हँसि रहल शारद पर्व॥16॥
क्षीण आशावरी स्वर जत भैरवी झंकार
किन्तु नहि संहार ई नव सृष्टिहिक उपहार॥17॥
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 37)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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