सुनो, सुनो

suno, suno

सोमप्रभ

सोमप्रभ

सुनो, सुनो

सोमप्रभ

और अधिकसोमप्रभ

    सुनो,

    रुको वहीं

    आधी रात बाद

    हालाँकि साफ़ नहीं है मौसम

    बहुत साफ़ नहीं है हवा

    तमाम ख़तरों के बीच

    तमाम विकल्पहीनता के बाद

    तुम वहीं रुको

    मैं एक विस्थापित—

    अपनी जगह से

    अपनी उमर से

    अपनी ही आत्मा से

    बेदख़ल होता

    अपनी ही देह से

    फेंक दिया जाता बाहर

    मैं एक विस्थापित

    तुम्हें पुकार कर कहता हूँ

    तुम उन्हें पुकार कर कहो

    कि वे उन्हें पुकार कर कहें

    कि सब वहीं रुकें

    अपनी बंजर ज़मीनों के पास

    चटके हुए चाँद को देखें

    कुओं का बचा-खुचा पानी

    प्यास और प्रार्थना के काम लाएँ

    उम्मीद है कि

    आसमान एक दिन तुम्हारे लिए

    वापस लौटेगा

    बस, सिर्फ़ इतना करो

    सब के सब वहीं रुको

    ज़मीन के पास हमारी भूख के लिए अन्न है

    ज़मीन के पास

    आसमान में भेज देने के लिए जल-भाप

    आधी रात को ट्रेनें पकड़कर

    मौसम में गुड़ी-मुड़ी होकर ग़लत निर्णयों से पहले

    शहर के अंधे कुएँ में तुम्हारे उतरने से पहले

    मैं सावधान करता हूँ

    थोड़ा धीरज रखो

    थोड़ा थामो छोड़े हुए एक दूसरे के काँधे

    और सवाल करो?

    कि आख़िर भूख से बिलबिलाती

    अंतड़ियों के साथ

    तुम मेनहोलों के पाइप में क्यूँ

    बिताना चाहते हो रात।

    मैं एक विस्थापित—

    तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकता

    तुम्हारे लिए कुछ नहीं कह सकता

    सिर्फ़ इतना कि

    तुम्हें वहीं रुकना चाहिए

    कि तुम्हें तुम्हारे नाम से पुकारा जाता रहे

    तुम्हारे जनपद

    तुम्हारे गाँव से जुड़ा रहे तुम्हारा नाम।

    धरती की बची हुई घास को नोचकर

    ख़ुद को रखो ज़िंदा

    या उजाड़ कर चूस लो पेड़ की छाल

    किसी भी तरह

    तुम्हें वहीं रुकना होगा

    जहाँ हमारे पुरखों की आत्मा है

    विस्थापित कह कर पुकारे जाओ

    इससे पहले

    वहीं रुको।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सोमप्रभ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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