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सुनहरी सुबह, नीली रात

sunahari subha nili raat

अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

गोपालकृष्ण रथ

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गोपालकृष्ण रथ

सुनहरी सुबह, नीली रात

गोपालकृष्ण रथ

और अधिकगोपालकृष्ण रथ

    कहाँ साँध होती है रिश्तों में जो

    तुम चढ़ जाती हो बाएँ पहाड़ की चोटी पर

    मैं भी आधा चढ़कर उतर नहीं पाता

    दाहिनी चोटी से

    नीचे बस एक खदबदाता उपत्यका है

    छटपटाता है एक छोटा उद्यान लिए

    एक छलछलाता पानी का झरना लिए

    माँ बाप की तरह हाथ पसारकर।

    क्या जीवन टूटे ईंटों का

    बिना सीमेंट से बना फ़र्श है,

    सिर्फ़ रखी हुई दीवार है?

    साइज़ से कटी हुई

    बिन सिली पोशाक है?

    देखो, उपत्यका में है ना

    'हमारा घर, सबसे सुंदर'

    अब पहाड़ की चोटी पर मत जाओ

    कहीं हाथ पैर टूट जाएँ

    लो, मैं उतर आता हूँ पहाड़ की चोटी से,

    अपने घर पर

    एक फूल, एक चाँद, एक मुस्कान

    लटका रहा हूँ

    सुनहरी सुबह के लिए,

    नीली रात के लिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विपुल दिगंत (पृष्ठ 89)
    • रचनाकार : गोपालकृष्ण रथ
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2019

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