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हाँ, वह पगडंडी

अब रसातल में चली गई है।

अभ्यासवश ही मैं यहाँ खड़ा हूँ

दौड़कर पार भी कर जाना चाहता हूँ

चीथड़ों-सी पड़ी इस धरती को

जिसकी दरारों में

आकाश तक के पैर फँस गए हैं,

और सूरज सारी हरियाली

के साथ लुढ़क गया है।

अभ्यासवश ही मैं यहाँ हूँ

जलहीन कूपों की आँखों में झाँकता,

जलती धरती के माथे पर

ठंडे हाथ रखता।

(शायद कोई अंकुर उगे)

अभ्यासवश ही देखता हूँ, सुनता हूँ,

बोलता हूँ, चुप रहता हूँ,

ख़ाली ज़मीन को घेरता हूँ

और बाड़े बनाने के लिए

काँटे उठा-उठाकर लाता हूँ।

‘तुम एक भयानक सूखे से घिर गए हो’—

लोग मुझसे कहते है।

(शायद यह हमदर्दी है!)

कोई कुछ देने आया है दे जाए,

लूट लेने आया है ले जाए।

मुझे सभी एक जैसे लगते हैं।

किसी का होना होना

कोई मतलब नहीं रखता।

सूखा—

हाँ, अब मुझमें कुछ उगेगा नहीं

अब कहीं कोई प्रतिक्षा नहीं होगी,

एक ख़ाली पेट की तरह

मेरी आत्मा पिचक गई है

और ईश्वर मरे हुए डाँगर-सा गँधा रहा है।

फिर भी अभ्यासवश मैं यहाँ खड़ा हूँ

पुजागृहों की दीवारों से टिका

जलहीन सरोवरों के हाथ बिका

निष्प्राण होने पर भी इस धरती को पहचानता

कुछ मिलने पर भी अपना मानता।

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 105)
  • रचनाकार : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 1989

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