बसंत को खेतों ने
कल मैंने फ़ेसबुक की किसी प्रोफ़ाइल में
खिले देखे थे पलाश के फूल
फ़ेसबुकियों की यह बसंत बहार देख
मैंने अपने आस-पास देखा
कहीं झाँक नहीं रहा था बसंत
हाँ घर के आस-पास के कुछ पेड़ों की
पत्तियाँ ज़रूर तेज़ी से झर रही थीं
और कुछ पेड़ों की नंगी डालियों में
निकल रही थीं नई-नई पत्तियाँ
यह देख कर मुझे अच्छा लगा कि
अपनी तईं धरती बदल कर
अपना होना साबित कर रही है
मुझे रंग और गंध की भव्यता
अपने लपेटे में तेज़ी से ले रही थी
सही मायने में यह उसका समय था जो
पृथ्वी में अपने होने में विश्वास करते हैं
रंग और गंध का खिंचाव मुझे बरबस
गलियों की तरफ़ खींच कर ले जा रहा था
गलियों में चहल-पहल न के बराबर थी
कहीं-कहीं कुछ बच्चे ज़रूर रंग घोल रहे थे
लेकिन घरों से निकली उदासी गलियों में टहल रही थी
यह उदासी बसंत की नहीं थी
उस मन की थी जो इधर मन में
विशिष्ट हो गया था जबकि
हालत यह थी कि इस समय
बसंत को खेतों ने
कुर्ते की तरह पहन रखा था और
पेड़ों ने बाँध रखा था
सिर में पगड़ी की तरह
इकबारगी मुझे तथागत की तरह
सुजाता की खीर खाकर भान हुआ कि
दुनिया में ऐसी जगहें नहीं हैं
जहाँ बसंत न हो और सुजाता न हो।
- रचनाकार : नरेंद्र पुंडरीक
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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