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इंसानी बोली की शान में

insani boli ki shaan mein

अनुवाद : यादवेंद्र

एदुआर्दो गालेआनो

अन्य

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एदुआर्दो गालेआनो

इंसानी बोली की शान में

एदुआर्दो गालेआनो

और अधिकएदुआर्दो गालेआनो

     

    एक

    शुअर इंडियन—जो जिबरोज के नाम से भी जाने जाते हैं—युद्ध में परास्त करने के बाद अपने दुश्मनों का सिर क़लम कर देते हैं। इतना ही नहीं वे उनके सिरों को काटकर इतना कसकर दबाते-पिचकाते हैं कि वे आसानी से उनकी हथेलियों में समा सकें। वे ऐसा करके दुश्मन योद्धाओं को दुबारा जीवित न होने देने का इंतज़ाम कर लेते हैं। लेकिन परास्त कर देने के बाद भी दुश्मन क़ाबू में आ ही जाए, यह ज़रूरी नहीं, सो वे उनके होंठ ख़ूब अच्छी तरह से सिल डालते हैं—वह भी ऐसे धागे से जो कभी सड़े-गले नहीं।

     

    दो

    उनके हाथ रस्सी से कसकर बंधे हुए थे, लेकिन उनकी उंगलियाँ अब भी थिरक रही थीं। वे इधर-उधर उड़ रही थीं और शब्दों को पकड़ रही थीं। उन क़ैदियों के सिर को छूती हुई छत थी, पर जब वे पीछे की ओर झुकते तो बाहर का कुछ हिस्सा थोड़ा-थोड़ा दिखाई देता। उनको आपस में बात करने की सख़्त मनाही थी, लेकिन वे कहाँ मानने वाले थे। मौक़ा मिलते ही वे हाथों की भाषा बोलते थे। पिनिओ उंगरफेल्ड ने मुझे उंगलियों की पूरी वर्णमाला सिखाई थी। उन्होंने भी यह भाषा जेल में सीखी थी—बग़ैर किसी शिक्षक के सिखाए।

    ‘‘हम में से बहुतों की लिखावट बेहद भद्दी और ख़राब होती है, जबकि कुछ लोग कैलीग्राफ़ी में उस्ताद होते हैं।’’ उन्होंने मुझसे कहा था।

    उरुग्वे की तानाशाही का फ़रमान था कि हर अदद इंसान अकेला दूसरों से अलग-थलग रहे, बल्कि ग़ैर-इंसान बन कर रहे—जेल हो या बैरक, पूरे देश में आपसी बातचीत पूरी तरह ग़ैर-क़ानूनी करार दे दी गई थी। कई ऐसे क़ैदी थे जिन्हें ताबूत के आकार की कोठरी में दसियों साल से ऐसे रखा गया था, जिससे उन्हें लोहे के फाटकों और गलियारे में ड्यूटी देते पहरेदारों की पदचाप के सिवाय कुछ भी और सुनाई न दे।

    फर्नांडीज हुईदोब्रो और मॉरिसियो रोजेनकॉफ सालों लंबी क़ैद इसलिए निभा गए, क्योंकि वे दोनों अलग-अलग कोठरियों में रहते हुए भी आपस में बात कर लेते थे—अपनी-अपनी दीवार को थप-थपाकर। इस तरह वे अपने सपने और स्मृतियाँ साझा कर लेते थे, अधूरे छूट गए प्रेम-संबंधों की बातें कर लेते थे। वे ख़ूब बातें करते और कभी-कभी बहस तक कर लेते थे। वे एक दूसरे को कई बार सीने से लगा लेते थे और दूसरे ही पल गाली-गलौज पर उतर आते थे। वे अपने विचारों, विश्वासों, ख़ूबसूरती के बारे में धारणाओं, आशंकाओं और ग़लतियों का आदान-प्रदान भी करते थे। यहाँ तक कि वे उन बातों में भी उलझ जाते थे जिनके कोई उत्तर ढूँढ़े नहीं जा सकते थे।

    जब-जब बोलने की वास्तविक तलब उठेगी—और बग़ैर बोले रहना संभव नहीं रह जाएगा—तब किसी इंसान को बोलने से कोई रोक नहीं पाएगा। अगर मुँह बाँध दिया जाएगा तो वह हाथों की भाषा बोलेगा, या आँखों के ज़रिए संवाद करेगा, या दीवारों में दरारें ढूँढ़ेगा… वह किसी भी तरह बोलने का रास्ता निकाल ही लेगा।

    हमारे जैसे हर अदद इंसान के पास ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा होता है, जो वह दूसरे से कहना चाहता है, यह बात हमें ख़ुश कर सकती है और हम इसका उत्सव-सा मना सकते हैं, लेकिन अगर यह बात कभी अच्छी न लगे तो हमें बोलने वाले को माफ़ी भी देनी पड़ सकती है।

     

    स्रोत :
    • पुस्तक : सदानीरा पत्रिका
    • संपादक : अविनाश मिश्र
    • रचनाकार : एदुआर्दो गालेआनो

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