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स्मृति

smriti

अनुवाद : नीता बैनर्जी

दिलीप बरुआ

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दिलीप बरुआ

स्मृति

दिलीप बरुआ

और अधिकदिलीप बरुआ

    स्मृति मेरी क्षीण, अतिक्षीण।

    सुकोमल श्रवण-शक्तिहीन, अतिहीन

    प्रतिक्षण गुंजित घंटे की टंकार

    सुबह, शाम, शेष-निशा

    लगातार

    शिलामय इस पर्वत-शिखर पर

    मुक्ति-पिपासु भिक्षुओं का रक्षक

    किंकर्त्तव्यविमूढ़ मैं

    समय कहाँ चिन्तन का, स्मृति का?

    सदा व्यस्त है जीवन

    मेरा है कर्त्तव्य भिक्षुओं को

    प्रतिक्षण चौकस करना

    चिरन्तन सत्य के प्रति

    जो करके आए हैं अपने

    जीवन का सर्वस्व विसर्जित

    कहाँ समय इस सबके बीच

    रोमंथन स्मृति का करने

    जब मैं स्वयं समझ पाया

    इस अनबूझ जटिल जीवन को!

    मुझमें नहीं है साहस इतना

    इन सबसे से कहने का

    ‘ब्रह्मा के वांछित’ जीवन से

    मुक्ति की मुझे नहीं है चाह

    कह दूँ यह यदि भिक्षु-दल से

    मुझे विधर्मी समझेंगे ये

    किंतु शांत होती है दुर्जेय

    प्रतिध्वनि घंटा-ध्वनि की जब

    अनुभव अंतस् में करता हूँ

    प्रचण्ड प्रचेष्टा...मुक्ति की मैं

    शिलामय पर्वतों में आबद्ध

    नन्हे-से निर्झर की तरह

    पर हाय! श्रवण-शक्ति मेरी

    है क्षीण, अतिक्षीण

    कैसे पाएँ प्रत्युत्तर

    इस सुकोमल व्यग्रता की

    पूर्वजन्म में नहीं मेरा विश्वास

    पुनर्जन्म में आस्था नहीं

    इसीलिए ये मुक्तिकामीI

    स्मृतियाँ हैं इसी जन्म की

    पर सोचता हूँ कभी

    यह वासना है या अभिज्ञता

    दुष्प्राप्य की लालसा या कल्पना-विलास

    अस्तित्वहीन है जो वह तो

    केवल है स्मृति

    असंतुष्ट, आत्मकेंद्रित

    अतिप्रिय बिगड़ैल-सा मेरा

    बाल-सुलभ मन!

    इस भिक्षु दल की

    एकाग्र चिंता से कभी-कभी

    हो उठता हूँ संत्रासित

    जब

    भगवत्-प्रेम में तन्मय ये

    मन्दिर मंत्र-मुखरित करते

    सारी सुकोमल संज्ञा मेरी

    जाकर कहीं लुप्त हो जाती

    तब सदूर सागर से स्मृतियाँ

    लहरों-सी हैं आतीं

    संजीवित कर समग्र सत्ता

    सुख-स्वप्नों की वार्ता लातीं

    आत्मगर्विता प्रेयसी की स्मृति

    अयुत सूर्यालोक की प्रभा

    कर गई निष्प्रभ मन जिसका

    उसी प्रेयसी की स्मृति है यह

    जिसके नयनों में सुप्त रहा

    प्रेमावेग आग्नेयगिरि-सा

    जिसकी दृष्टि में तृष्णा मेरी रही

    कंपित अशरीरी शिखा-सी

    तभी आत्मविलुप्ति के गौरव से

    मैं हो पाया महीयान

    वही स्मृति बनकर रह गई

    मेरे महानिर्वाण का ज्ञान।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1989-90-91 (पृष्ठ 29)
    • संपादक : र.श. केलकर
    • रचनाकार : दिलीप बरुआ
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1993

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