रात का सफ़र

raat ka safar

सोनल

सोनल

रात का सफ़र

सोनल

और अधिकसोनल

    आधी रात का सफ़र है

    एकांत में एक गहरी डुबकी

    अज़ीब-सा रोमाँच है

    पूरी धरती पर अकेले होने जैसा

    मंच पर जैसे सब अद्रश्य

    खोए हैं अँधेरे में

    प्रकाश में घेरे में

    दमकते यात्रियों को छोड़कर

    कौंधती हेड लाईट से

    चमक उठती है अँधेरी सड़क

    लेकिन सन्नाटा टूटता नहीं

    उल्टा झट से लपक पड़ता है

    धुप्प अँधेरा लेकर

    गुरुत्वाकर्षण ऊँघ रहा होता है

    और तैर रहे होते हैं पहिए

    अद्रश्य रास्ते पर

    धुँधलाए समय के ख़्याल में

    यादें और सपने आवाजाही करते हैं

    गहरी नींद में सोए शहर में

    भटकती है गाड़ी

    थप-थपाते हुए चाय की गुमटी

    भट्टी की राख में सोया टामी

    सुकुडा-मुकुडा कुकुआता है...

    ‘अभी-अभी तो लगी थी नींद’

    सफ़र का दूर है छोर

    दूर कहीं अटकी है भोर

    घर्र-घर्र आवाज़

    बनकर हिंडोला

    दे रही नींद की हिलोर

    बीतते जा रहे गाँव शहर

    मिलता नहीं पर कोई ठौर

    और लो चमक उठी है

    तभी एक टपरी

    डूबते जनों को हुआ

    तिनके का सहारा

    डालकर लंगर

    ऊपर पड़े यात्री

    सुलग उठी सिगड़ी

    चढ़ा कर सर पर

    अदरक वाली चाय

    महक भर से जिसकी

    चटखने लगा

    रात का नशा और

    पूरब का आसमान

    स्रोत :
    • रचनाकार : सोनल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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