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शुक!

shuk!

प्रवीण पण्ड्या

और अधिकप्रवीण पण्ड्या

    चोंच मार, चोंच मार।

    फल यह निगम-कल्पतरु का है।

    तुम्हारे आद्यभोग के बिना कैसे जानेंगे

    भुवन में भावुक जन

    कि यह पक गया है,

    रसीला हो गया है।

    तुम्हारे बाद तो सब

    अपनी-अपनी चोंच को धो-धोकर

    करेंगे यत्न

    उस पके फल के आस्वादन का।

    शुक!

    निगमतरु का कठिन फल

    कहाँ गलता है?

    उसके रस के इच्छुक कितने कितने कर्मठ

    क्षीणदंत और भग्नमुख हो गए।

    युगांतर हो जाने विच्छिन्न हो गई परंपरा

    रचती है उसमें काठिन्य को,

    कोई दुर्लंघ्य खाई बना लेती है

    व्यवधान

    उसके रस और हमारे होंठों के बीच।

    आगम के दोनों में यत्न से सँजोया हुआ

    फल है यह।

    शुक! चख, चख।

    फल यह निगम-कल्पतरु का ही है,

    कोई अन्य नहीं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रवीण पण्ड्या
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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