अंतराल

antral

श्रीराम वर्मा

और अधिकश्रीराम वर्मा

    आँखें

    किसी एकाकिनी भोरी कुमारी की

    झाँके।

    झाँकती जाएँ।

    अधखुले दरवाज़ों, अधखुली खिड़कियों से

    रह-रह के।

    अंग-अंग में

    लहर। कल-कल स्वर।

    बहाव। थिराव।

    पत्थरों पर चोट देता डूबने का भाव।

    कहाँ है तट?

    कहाँ है तट?

    कहाँ है तट?

    और इसका एक उत्तर

    एक उत्तर नित्य—

    बढ़ते अँधरे का गिद्ध

    कुचली गली से बजती सड़क तक।

    नील डैने धुएँ वाले फैलाए

    रह-रह के

    चोंच मार देता हुआ

    रह-रह के।

    रोना रोना रोना...

    क्या यही है होना?

    ना रो सजनी :

    तेरी माँगों के उमड़ते सपनों-से

    आँसू ये मूल्यवान।

    सरताज ताज ये। इन्हें सुरक्षित रख।

    ना रो सजना :

    दर्द की नहीं हैं सीमाएँ।

    आँसू हैं ये

    टिकिया नहीं।

    इन्हें सुरक्षित रख।

    आँसू ये मूल्यवान।

    ना रो, अँगना के हिरना :

    तेरे एक आँसू से

    ऐना दरक जाता,

    करक जाता हियना,

    सातों सागर दरार में उभर आते।

    उकठ जाती सारी बँसवारी,

    फोड़कर बाँस एक फूल ज्यों

    चुभता :

    ना रो बहना :

    पहाड़ चढ़ बिजली चट्टान फोड़

    लिख जाती :

    आँसू ये मूल्यवान।

    इन्हें सुरक्षित रख।

    रो ना रो ना रो ना

    ना रो बिरना,

    एक दिन नारों में बदलना।

    घूरे पर फिंकी एक तेलहीन कुप्पी ने देखा :

    खौरही कुतिया कचकचाती पूँछ दबा भाग गई,

    सोचकर यमराज का एक ओर दूत आया।

    बच्चों ने भेड़ दिए दरवाज़े, अधखुली खिड़कियों से आँख भर झाँका :

    रीढ़ के घट्टे चुटीले पर एकत्र ताने-सा बोरा अष्टावक्र लादे

    बोझ के भार से झुकी कमर घिसटता अँधेरा चिल्लाया :

    ‘टूटे-फूटे शीशे बर्तन बेचो।'

    ‘फटे-पुराने कपड़े बेचो।'

    ‘रद्दी काग़ज़-अख़बार बेचो।'

    अँधेरे के लिए रेंगते सब रोशन हैं :

    कहाँ क्या है

    और क्या-क्या नहीं बिक सकता!

    उठकर हाथ-सी आवाज़

    ध्वजा-सी लहराने लगी।

    पंद्रह अगस्त-सा एक किशोर अधेड़

    द्वार पर आकर दंडवत् धर्मकाँटे-सा गड़ गया।

    अँधेरे में घूरे की कुप्पी

    ठाठर की लड़खड़ाई खुर से पिचककर

    रह गई।

    दरवाज़ा एकदंत मुँहबाए

    बेआवाज़ निरात्म

    मरा-मरा खोखल अट्टहास :

    यहाँ नेता नहीं आते।

    यमराज के दूत भी नहीं।

    आता है अँधरा।

    आते हैं सस्ते में ख़रीदने कबाड़ी सिर्फ़,

    ग्रहण में दान माँगने

    आते हैं महापात्र।

    नेता, कोई दूत।

    अँधेरा, कबाड़ी, महापात्र।

    आदमी की उतारी गई खाल पर

    बनाए गए चित्र-सा नक़्शा

    उधर देश का—जहाँ

    मकड़ियों की दौड़-धूप।

    जाले भूरे : धुनी हुई नसों के तार-तार—

    उधर वहाँ

    एक टूटी बंद घड़ी

    ताक़ पर धरी।

    (आयु से परे

    स्थिर

    पूज्य अस्थि-पात्र

    ईसा, बुद्ध या गाँधी का!)

    इधर यहाँ

    एक गोल-मटोल ध्येय का चश्मा लगाए दृष्टिहीन

    आँखों पर

    सिकुड़ा हुआ किशोर छात्र। मनाता

    कि आए ट्यूटर। मर जाए उसका बाप—

    (इंजीनियर बनाने का सपना लिए

    चूहा, चिल्होर, चींटी

    या कोई भी निम्नयोनि!)

    और गले से लिपटा है

    रोशनी से रूप लेकर

    एक उल्टा चमगादड़

    पूरे कमरे को, हवा को,

    साँस को, रोशनी को

    काले डैनों से कँपाता हुआ,

    भीतर तक फैलता हुआ।

    नयन में अटकी हुई संज्ञा,

    तू सहेली है चकई की।

    हर साँझ धुँधलके में

    प्रतीक्षारत।

    भीतर हहाती

    एक नदी है।

    भँवर में पड़ी

    नीलम की तरी है।

    नयन में उतर आई संज्ञा

    तू प्रतिध्वनि है ठिठकी

    भिखारिन की।

    ललकती देख ले,

    ऊपर उस बँगले से

    नीले धुएँ का जाल

    बिखरे मन को समेटता

    उड़ते कुंतल-सा

    कुहासे-सा आँखों तक

    छाता—

    नयन तक उदास संज्ञा,

    ले,

    आत्मा में ले उतार—

    शीश पर आँचल का

    गुलाबी-पीला किनारा।

    फिर माथे की परिचित कोर—

    दिन की प्रस्तावना यह

    शुभ हो

    मटियर चूल्हे के निकट

    गीली लकड़ियों सहित।

    मधुभीगी भोर

    अभी बैठी ओट :

    शेष है अभी भी

    गलने को।

    जलने को।

    तलने को।

    नयन में जमती हुई निराश संज्ञा,

    तू घड़ी है प्रतीक्षाहत :

    निज की नदी में अँकवार ले।

    सहेली

    भिखारिन

    उदास-निराश प्रतीक्षाहत,

    दिन की प्रस्तावना यह शुभ हो।

    ओट में है भोर।

    खिड़की के ऐन सामने से

    अभी-अभी गुज़र गई ट्रेन :

    जलती धूप की सुगंधित लहरीली अँगराई

    जैसे अनंग हो अनुस्मृति भर रह जाए :

    चेहरे असंख्य

    दिखे। दूर हुए।

    दूर होते गए।

    धुआँ लिपटता गया

    निजी नीलाकाशों से।

    धागेबँधी घिसटती

    एक बिल्ली मरी हुई

    भूँकते कुल रास्ते।

    कपड़ों की छायाएँ

    दुत्कारती परस्पर मिलने लगीं।

    हिलने लगी हरी झंडी-सी।

    गुज़र गई ट्रेन

    धूप की लहर-सी।

    अँधेरे की पसलियाँ गिनता

    हुआ-हुआ, झन्न-झाँय

    एकांत विजन एक स्टेशन-सा

    मैं मौन

    बिल्ली-सा मरा

    घिसटता।

    जाओ, ट्रेन जाओ।

    मुझे निर्वाण है तुम्हारी गति,

    मरघट की लहर नहीं।

    खो गई है शाम कुंचित कुंतलों में।

    खो गया है तमस काली पुतलियों में।

    कुहरडूबी गली

    लजी

    नयनों सजी

    कज्जल-रेख

    देख।

    सूर्य के आलोक-पल्लव-सा

    विकंपित हाथ नवल वसंत का

    पहुँचता सा निकट बालों के।

    एक लालिम फूल

    गालों के लजाता रूप

    अहरह

    बन गया आवर्त बहते सूर्य का।

    एक लालिम फूल : यह शची का तीर्थ।

    न्हा लो युगल के प्यार!

    ‘नहीं, अब तू जा। चला जा।

    शाप-सा जाए शायद

    बंधनावृत वह बली संदेह।

    पिया, कौन जाने यह गर्ल

    बन जाए मछली मुँहजली!

    और हम बन जाएँ केवल कहानी

    डूबी अँगूठी की।'

    ‘ओ री मेरी पावन जिजीविषा,

    याद कर कि यात्रियों ने

    अभेद्य पर्वतों, दुर्लंघ्य खाइयों को

    पार किया केवल जंज़ीरों से

    सेतु बना।

    मेरी मंजरी,

    ओस-बीच किरण के विदुम-सा

    तुम्हें धारे

    सिर्फ़ कहने से तुम्हारे

    लो, मैं बिछलते पराग-सा

    जाता हूँ।

    मर गए ज्योति से जो

    पतिंगे थे।

    कट गई जो अभी

    इसी घर की बिजली थी।

    लैंपपोस्ट यह

    मौन तथागत की मुद्रा में

    करुण दृष्टि से

    पंचशील आलोक दे रहा :

    धूल गली की

    कोरे काग़ज़-सी

    पियरायी।

    दीवारें बनाता हुआ।

    चला गया सूर्य दुर्दमनीय

    क्षितिज के भी पार—

    (बच्चे ने पतंग जो उड़ाई,

    मान लिया मैंने पर्याय।

    डोर उसकी भी टूट गई।)

    धुआँ उठा गर्द का,

    दे तनिक विस्तार—

    कूदती-ठुमकती कार,

    अपनी ही ज्योति से

    दे तनिक विस्तार

    सीमाएँ टूटें टूटें सही,

    फैल जाएँ—

    दे तनिक विस्तार—

    स्रोत :
    • पुस्तक : गली का परिवेश (पृष्ठ 57)
    • रचनाकार : श्रीराम वर्मा
    • प्रकाशन : पीतांबर प्रकाशन
    • संस्करण : 2000

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए