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श्मशान

shmshaan

सुरेन्द्र झा 'सुमन'

अन्य

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और अधिकसुरेन्द्र झा 'सुमन'

    एकान्त नदी-तट वनक प्रान्त, आश्रम अहाँक अछि बसल शान्त

    जकरा दर्शनसँ गलित-राग, बिनु साधन जन पाबय विराग

    माया मोह, ममता मान, हे जटिल यती, जगमे श्मशान!1॥

    अछि चिता होम-वेदी प्रचण्ड, क्रन्दन-स्वर वेद-ध्वनि अखण्ड

    ऋत्विक् अन्त्यज, दानीय शिवा, अछि यज्ञ अनुष्ठित रात्रि-दिवा

    कुश-तिल-समिधा सञ्चित विधान, अहँ कर्मठ याज्ञिक, हे श्मशान!2॥

    युग-युगसँ चालित अग्निहोत्र, हवि चढ़बथि नाना नाम-गोत्र

    नरमेध नित्य, कखनहु विरोध करइछ दक्षिणायनक बोध

    कय वाममार्गहिक अनुष्ठान, नित तान्त्रिक-कर्मा हे श्मशान!3॥

    अछि अहँक पाठशाला सुबोध, कण-कणसँ दर्शन-तत्व बोध

    लय पाठ एतय नहि होथि मुक्त, के एहन जीव छथि जगत युक्त

    अध्यापक दोसर एहन आन, कहु के अछि जगमे हे श्मशान!4॥

    वेदान्त कहथि सब थिक अनित्य, अछि किन्तु अहँक अस्तित्व नित्य

    रवि खसथि साँझ, शशि झरथि भोर, नहि ज्वलित तेज हो शमित तोर

    बनि एकमात्र तेजक निधान, छी ज्योतिमान नित हे श्मशान!5॥

    वाद-प्रतिवादी मिलन एतहि, सभ क्रोध-विरोधक शमन एतहि

    भाषा-भूषा जत वेश-भेष, आस्तिक-नास्तिकक भेद-लेश

    छी एक-रूपमय, एकतान, चरितार्थ एकता हे श्मशान!6॥

    जनिकर जीवन चिन्ता निर्झर, क्षण भरि विराम नहि, तन जर्जर

    विश्रान्ति शान्तिमय अहिँक अंक, पाबथि से सहजहिँ निरातंक

    के कहत अहाँके क्रूर-प्राण? चिर विश्रामस्थल, हे श्मशान!7॥

    फूलक शय्या पर कुसुम-वृन्त छिलइत छल जनिकर अंग हन्त!

    से दबि कठोर काठक पहाड़, नहि बुझथि कनेको कष्ट भार

    हे हठयोगक शिक्षक महान! छी कठिन परीक्षक, हे श्मशान!8॥

    क्रन्दन-ध्वनि होइछ एक कात, पुनि क्षुब्ध गृद्ध-दल कर घात

    मनमे घृणा-करुणाक थान, बिनु उपनिषदे जत ब्रह्म-ज्ञान

    हे स्थितप्रज्ञ, साधक महान! गीता-गाता अहँ, हे श्मशान!9॥

    छथि कोनहु कोनमे जन-नेता, भस्मावशेष छथि दिग्जेता

    करतल-गत विश्वक ज्ञान जनिक, अछि माटि मुष्टिभरि कतहु तनिक

    नित धूलि मिला' मानीक मान, छी बनल मान्य अपने श्मशान!10॥

    पूजी-श्रममे नहि भेद-भाद, अछि अहँक राज्यमे साम्यवाद

    राजा-रंकक अछि तुल्य मान, अछि साम्य एतहि व्यवहारवान

    छी समता-तत्वक मूर्तिमान, आचार्य-प्रवर अहँ, हे श्मशान!11॥

    प्रिय-विरहे जरइत हृदय आगि, नहि मिझा सकल जे अश्रु लागि

    चढ़ि चिता ज्वलित, तापित हीतल, करइत छथि सती एतहि शीतल

    परिबोधक एहेन कतहु आन, के अछि? अहीं कहु, हे श्मशान!12॥

    छल गढ़ल कुसुमहिक जकर अंग, मुख समतामे चन्द्रक प्रसंग

    से होथि पलहि भस्मावशेष, दारुण दावानलक देश

    ज्वालामय अहँक शरीर-प्राण, छी अनल-किरीटी, हे श्मशान!13॥

    ने सुनी प्रेयसिक करुण वचन, देखी सजल जननीक नयन

    ने बुझी मोल हीरक वीरक, ने करी चित्त चेतन नीरक

    चेतना-हीन नीरव पखान, हे अन्ध, बधिर, मौनी, श्मशान!14॥

    अछि संग प्रेत, तन भस्म अंग, मृत्युञ्जय प्रलयंकर असंग

    धूमे अछि श्यामल अहँक मूर्ति, सब तीर्थ कमण्डलु विधिक पूर्ति

    अहँ ध्यान त्रिदेवक मूर्तिमान, आद्यन्त-हीन छी, हे श्मशान!15॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 35)
    • संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
    • रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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