शरीर-रचना

sharir rachna

जगदीश चतुर्वेदी

जगदीश चतुर्वेदी

शरीर-रचना

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    अँधेरी घाटियों में नाचता है मेरा अकेलापन

    और थकी हुई एक लड़की

    मिल जाती है बस में और पूछती है समय!

    समय टँगा रहता है हमारे बीच

    और हम अपनी अनत सीमाओं में बँधे

    बैठे रहते हैं चुपचाप और रास्ता काटते हैं अख़बारी बातों में।

    एक भरी हुई बाँह दब जाती है शरीर के बाएँ खंड के तले और

    एक मसृण क्लांत देह छिटककर हट जाती है दूर

    और चिपक जाती है खिड़की से!

    खिड़की के पार गिरता हुआ आसमान

    आँखों में लपेटे मुझे देखती है

    एक अनागता और मैं उसके स्पर्श का बहुत हल्का आभास

    महसूस करता हूँ जोड़ों में!

    सब हो जाता है शरीर

    और बिस्तर पर पड़ी हुई आवाज़

    चुपचाप दोहराती है उसका नाम अँधेरे में!

    रोज़ एक दैत्य की खोहनुमा आँखें

    मेरे सामने सिकुड़ जाती हैं हवा में

    और उनमें दबी हुई एक लड़की

    अपनी सतीत्व रक्षा के लिए कराहती है।

    चिल्लाती है लेकर मेरा नाम और मैं जब जागता हूँ

    तो उसकी निपट नंगी देह पानी-सी घुल जाती है!

    सीमाओं का पहाड़ टूट जाता है

    चर्राकर और स्नायुओं में बँधा रक्त

    बहने लगता है असंयमित होकर खुली हवा में।

    एक नए प्रश्न की तरह तैरती हैं

    उसकी आँखें मेरी हथेलियों में

    और अस्पृश्य होंठों में

    बुदबुदाते शरीर-चिह्न एक नई रचना में

    आबद्ध हो जाते हैं!

    मेरा अकेलापन जाता है टूट

    एक प्रस्तर-प्रतिमा को लपेटे अपने साथ

    और एक छोटी-सी यात्रा

    सुख में बदलकर छा जाती है

    बालों में, पसलियों पर और कंधों के आर-पार!

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 75)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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