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शमी

shami

विश्वंभरनाथ उपाध्याय

अन्य

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और अधिकविश्वंभरनाथ उपाध्याय

    मैं शमी का दरख़्त!

    मैं नहीं चाहता था, शुभ-शकुन के लिए मेरा वजूद काम आए

    मेरी छाया में बैठ कर कोई जोड़ा

    एक दूसरे को बेवक़ूफ़ बनाए!

    मैं त्यक्त और निषिद्ध

    इस खड्ड में अजनबी अछूत-सा खड़ा था

    कुछ अनहोना नहीं देखा, जिसे कहूँ

    सब पूर्वनिश्चित, पूर्वघोषित, लकीर के फ़क़ीर

    मैं मगन अपने में

    एक 'बस यों ही' जैसा भाव

    सूरज निकल या सनीचर

    सूखा हो या गुल-ओ-बुलबुल के चाव

    काल यों ही कूदता रहे कंगारू-सा

    या किसी भद्र की शिष्टगति अपनाए

    इधर से गुज़रता कोई अलाप छेड़े

    या चीख़ छोड़ जाए

    मैं मोम था, पत्थर

    एक अंत्यज पौधा था, रुख़

    जो है और नहीं भी है

    गंदगी में गर्वीला, दुर्गंध में दुर्दांत!

    सोचा था औघट-घाट के बमररक्कस-सा पड़ा

    लेकिन मैं भी दंतकथा से सताया गया

    कहा गया, शमी निर्लिप्त है

    और निर्लिप्त ही लिप्सा पूरी कर सकता है!

    मेरी डालों पर कुँआरे कपड़े बाँध कर

    मुरादें माँगी जाने लगीं

    दूध और पूत के शेख़चिल्ली सपनों में डूबीं

    दरख़्वास्ते लगाई जाने लगीं

    परीज़ाद लुक-छिप कर आने लगे

    निर्वासित पांडव मुझ पर मुर्दे टाँग कर

    अपने हथियार छिपाने लगे!

    मैं इनसे उदासीन रह कर

    अपनी जड़ों पर जमा रह सकता था

    लेकिन इस हकलाती पीढ़ी का क्या करूँ

    जो मुझसे ज़हर नहीं, दुआ माँगती है?

    सोचता हूँ पांडवों के शस्त्र

    इन बघनख बालकों को दे दूँ

    हो सकता है गदा देखकर कोई भीम हो जाए

    गांडीव पाकर गुडाकेश बन जाए

    इनका जीवन एक निर्लज्ज चीरहरण है

    इनकी द्रौपदियों की चोटियाँ नहीं बँधतीं

    जली-कटी दास्तानें सुनाते हैं दिन-रात मुझे

    कृष्ण का प्रतीक समझकर

    और सचमुच मैं महाभारत रचाने की संभावना में

    संपृक्त, संकल्प में सनकता

    चुनौती सख़्त!

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 92)
    • संपादक : दिविक रमेश
    • रचनाकार : विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
    • प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
    • संस्करण : 1981

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