स्वर्गीय कवि

saurgiyah kawi

बालमुकुंद गुप्त

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    हे कवि1 ! कहँ तुम कौन स्वर्ग में वास तुम्हारो?
    कौन दिव्य वह लोक इहाँ तें कितो पसारो?
    ध्रुव ब्रह्मा, सिव, विष्णु, देवपति के लोकन महं।
    किंबा औरहु ऊँचो लोक विराजत हो जहँ।
    रहौ कतहुँ किन पै राखो अनुरोध हमारो।
    एक बार स्वर्गीय दया-दृष्टि से निहारो।
    नभ के उज्ज्वल आँगन महं दरसन दिखराओ।
    भू के हतभागिन कहँ सुरपुर कथा सुनाओ।
    मर्त्यलोक को अघी नरक को कीट कहाऊँ।
    स्वर्ग द्वार में धसन अहो कवि! कैसे पाऊँ?
    कहँ ऐसो मम भाग्य प्रान अवसान भए पर।
    पाऊँ देव! प्रफुल्ल-चित्त सुरपुर-भीतर घर?
    पुंज-पुंज तव पुण्य अहो कवि! आगे आओ।
    पुण्यमयी कविता ने अपनो बल दिखरायो।
    हे जसभागी! उहाँ ठाँव सुरपुर में पाई।
    इहाँ भूमि पर रही रावरी कीरति छाई।
    लै बीना स्वर्गीय, स्वर्ग को गीत सुनाओ।
    मर्त्यलोक-वासी की यह अभिलाष मिटाओ।
    मर्त्य-गान जो मर्त्य-कलेवर महं तुम गाए।
    अच्छर-अच्छर जिनके अमृत माहं डुबाए।
    सुनि हैं तिन कहँ निसदिन मर्त्यकलेवर धारी।
    जबलौं रहे प्रान को तन मैं ताँतो जारी।
    केते जन्म बिताय बहुरि या जग महं आवैं।
    तुम्हरे उन चिर मर्त्यगीत कहं सुनहिं सुनावैं।
    राख्यो संचय करि जिन महं या जग को संबल।
    सोक, सांति, भय, ज्ञान, दु:ख, सुख, हास्य, अस्रु जल।
    अहो स्वर्ग कविराज! स्वर्ग को गान सुनाओ।
    एक बार स्वर्ग की देव! वह छवि दिखराओ।
    कहँ कैसे सुरलोक अहै कैसो सुख वामैं।
    किहि प्रकार सुख सांतिभाव राजन है तामें?
    किते कोटि ब्रह्मांड किते कोटिन बल द्वारा—
    चालत हैं तहं, अहैं किते रवि ससि नभ तारा?
    केते ब्रह्मा, विष्णु, किते सुरपति त्रिपुरारी।
    केते दीप्त पुंजमय दिव्य कलेवर धारी?
    कौन भाँति तहँ फूल खिलत वायू झकझोरत।
    सोतवती किमि बेग सहित बहु सोतन छोरत?
    कैसे सुंदर विपिन तहाँ कैसे ऋतु आवत।
    कैसे भोग विलास राग रस रंग बढ़ावत?
    कैसी तहाँ सुरम्य सुहावनि फूली कुंजें।
    कैसे पुंज-पुंज आलिंगन तिन ऊपर गुंजें?
    कैसे तहाँ तड़ाग खिले कैसे तहँ सतदल।
    कैसो सुंदर स्वच्छ सरस सीतल तिनको जल?
    और तहाँ किहि भाँति मीनगन खेल दिखावैं।
    पंछीगन मीठी लय से निज गान सुनावैं?
    सुन्यो स्वर्ग के माहं विराजत नंदन कानन।
    वाकी छबि दिखराय देहु है कोसो वह बन?
    कैसे वाके पारिजात गहने फूलन के।
    कैसे तिनकी गंध रंग कैसे कलियन के?
    किह प्रकार मंदाकिनि तहं परवाह बढ़ावत।
    कहाँ सुधा के भाँड, सुधा मुख सों ढरकावत?
    मनी कौस्तुभ कहा रंग कैसो है ताको।
    केते कोटि विस्व महं रहत उजेरो वाको?
    सुन्यो अहै उच्चैस्रवा अरु ऐरावत तहँ।
    तिन्हैं हमें दिखारावहु अरु जो कुछ है वा महं।
    अहो देव! कविराज सदा आनंद भावमय।
    सुरपुर अरु भूलोक तुम्हारे दोऊ आलय।
    तव प्रसाद तें तथ्य मर्त्य को सिगरो पायो।
    अब सुरपुर की कथा सुनन तुम्हरे ढिग आय।
    देव! कृपा करि मोहिं स्वर्ग को तथ्य बताओ।
    एक बार अंकित करि वाकी छबि दरसाओ।
    स्वर्ग मर्त्य को ठीक भेद जासों कछु पाओं।
    चिर कलुषित हिय को जासों कुछ ताप मिटाओं॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 654)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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