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सरिता

sarita

अनुवाद : रमेश कौशिक

मानव-जाति मुझे लगती है

जैसे राष्ट्रों की सरिता है

और युगों का बिंब

कल्पना में आता है

जैसे लहरें लहरातीं

सागर को जातीं

एक दूसरे से टकरातीं

शक्तिमयी स्वच्छंद विचरतीं

छितरातीं किलकातीं

अपनी-अपनी भाषाओं में

सागर का पथ

चाहे कितना ही लंबा हो

लेकिन सरिता बहती है

आगे बढ़ती है

कोई बली प्रवेग

रोक सकता है इसको आसानी से

जैसे गीत बिचारा मेरा

रुक जाता है

कभी नहीं विश्वास मुझे

यह हो पाता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : एक सौ एक सोवियत कविताएँ (पृष्ठ 134)
  • रचनाकार : स्तेपान श्चिपाचोव
  • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
  • संस्करण : 1975

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