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सारी दुनिया सूरज सोच सके

sari duniya suraj soch sake

लाल्टू

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लाल्टू

सारी दुनिया सूरज सोच सके

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    जब सूरज उगता है

    मैं खिड़की से देखता हूँ

    मज़दूर सड़क पार मकान बना रहे हैं

    सूरज खिड़की पर सुबह-सुबह नहीं आता

    कल्पना कर लेता हूँ कितना बढ़िया है सूरज

    रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को

    आकाश हर रोज़ एक नया शिशु देता है

    नंगी धरती

    अँगड़ाई लेती

    शरीर फैलाती है

    उसकी शर्म रखने

    अलस्सुबह उग आते

    पेड़-पौधे, घास-पात

    पूरब जंघाएँ

    प्रसव से लाल हो जाती हैं

    ऐसा सोचता हूँ

    सूरज कल्पना कर

    कभी-कभी

    मैंने मज़दूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है

    मेरे जागने तक

    टट्टी-पानी कर चुके होते हैं

    अपने काम में लग चुके होते हैं

    एक-एक कप चाय के सहारे

    मैंने चाहा है

    कि वे सूरज को कोसें

    शिकवा करें

    कि क्यों वह रोज़ उग आता है इतनी जल्दी

    बार-बार सोचता थक गया हूँ

    अगर वे कभी सूरज सोच सकें

    सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे

    षड्यंत्र करेंगे

    कि सारी दुनिया सूरज सोच सके।

    स्रोत :
    • रचनाकार : लाल्टू
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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