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सर्द-गर्म

sard garm

रिया रागिनी

रिया रागिनी

सर्द-गर्म

रिया रागिनी

और अधिकरिया रागिनी

    हाँ, ज़रूर!

    और भले ज़रूरत से ही सही जन्मा

    मेरा यह घर

    (या होना घर का)

    बदल गया।

    मगर मेरी यह कंधों की-सी ढलान

    आगे की ओर लिपटी,

    खींचती-खिंचाती

    कब बदलेगी?

    कब होगा ग़ायब

    मेरी गर्दन का एक-तरफ़ा रुझाव,

    जैसे ग़ायब हो बैठी

    वाष्प-धुनी कल्पनाएँ।

    कब टोहेंगी मेरी आँखें

    कोई नया अनजान डर?

    कब आँखों देखे डर

    (या उनका अभाव)

    समझा-बुझा देंगे

    मेरे पाँव की सिकुड़ी सबसे छोटी उँगली को?

    कब दे पाऊँगी

    मैं उस सबसे छोटी, सिकुड़ी, लगभग ग़ायब छाप को

    भूली-बिसरी, मुझसे ही मिथ्या उँगली को

    उसका अपना कोई नाम?

    ‘उसे वैसे भी तो कोई नहीं ही जानता न,

    क्या ही बदल जाएगा?’

    यह कह-कह

    हाँ,

    मैं ख़ुद को सुला तो लेती हूँ।

    पर तुम ही बताओ,

    कब मेरी यह असंलग्न नींद

    देखेगी वह स्वप्न जिससे जन्मेगी ऐसी आँधी

    जहाँ सबसे खरी, सबसे छोटी दूब की भी

    पिघल सकती हैं

    सबसे प्रिय पूर्ववृत्तियाँ,

    बिना उखड़े,

    बिना उलझे?

    स्रोत :
    • रचनाकार : रिया रागिनी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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