संत्रास

santras

मनीष कुमार यादव

और अधिकमनीष कुमार यादव

    वरुणा नदी में

    डूबती-उतराती

    पूर्वज संरचनाएँ

    धमनियों और शिराओं की

    आर्द बहुलता में उलझी हैं

    शुक्ल-पक्ष के धृणताओं के

    समकाल में

    जैसे सियार उघारते हैं मिट्टी

    नवजात शवों की

    जैसे तरई लावा की तरह

    छितरा दी गई हो

    नियत आकाश में

    आसन्न खड़ी चुप लिए

    बहती नदी में उफनाती

    आसन्न अजोरिया रात

    ज़िद के इस अनिश्चय प्रहर में

    भग्नावशेषों से साँस रगड़ते

    भृतात्माओं से देह

    वे पीड़ाएँ जो हर शीतलहर में

    बतास की तरह उभर आतीं

    क्वार का हठ लिए

    आयु झपटती जिनकी तरफ़

    उन प्रियजनों की अनुपस्थिति के

    अगहन में

    अठगंवा न्योतते सारी बिरादरी

    अलग्योझों ने समझाया

    व्यावहारिकता का भुगतान पर

    प्रत्यक्ष समाकलनों का हिसाब

    कभी समझ नहीं आया

    हम विस्मित होते कि कैसे

    सभी दुखों की एक संज्ञा

    सभी विकलताओं का एक सिरा

    सभी स्वप्नों की एक निराशा

    सभी घरों का एक हिसाब।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीष कुमार यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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