संस्कृत व्याकरण

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भट्ट मथुरानाथ शास्त्री

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संस्कृत व्याकरण

भट्ट मथुरानाथ शास्त्री

और अधिकभट्ट मथुरानाथ शास्त्री

    संस्कृत का व्याकरण प्राचीन काल में ही दृढ़तापूर्वक स्थिर कर दिया गया

    था। उसकी कठिनता से भयभीत होकर लोग आज उससे मुँह मोड़ रहे हैं।

    संस्कृत की ओर रुचि रखने वाले बालकों को जो आकृष्ट करना चाहते

    हैं, उन्हें इस गाँठ को ढीला करने के लिए परिश्रम करना चाहिए।

    प्राचीन आचार्यों द्वारा बनाए गए शास्त्र-निर्दिष्ट व्याकरण-मार्ग का

    उल्लंघन करना आज बहुत-से पड़ितों को मान्य नहीं।

    (दूसरों का कहना है कि यदि व्याकरण की इस कठिनाई को हल

    किया गया तो) अब शीघ्र ही इस ऋषि-निर्मित मार्ग का नाश हो जाने की

    संभावना है। इसलिए हमें उसी की रक्षा के लिए थोड़ा-सा हेर-फेर करना चाहिए।

    इस प्रकार विद्वानों का भी मन संशयग्रस्त हो रहा है। उनके मति-भ्रम

    को मिटाने के लिए मैं अपने विचार उपस्थित करता हूँ।

    अशुद्धियाँ ही भाषाओं की अत्यधिक उन्नति करती हैं, आज जो

    व्यक्तिक्रम (नियम-भंग) है, वही बाद में नियम बन जाएगा।

    रामायण, महाभारत तथा कालिदास के ग्रंथों में भी नाना प्रकार के

    अपाणिनीय प्रयोग मिलते हैं।

    सूत्रों से सिद्ध होने वाले 'आर्ष' नामक प्रयोग हैं ही, जो शास्त्रकारों

    के सम्मत होने के कारण शुद्ध गिने गए हैं।

    जिस कर्म का फल दृष्टिगोचर होता हो, शास्त्र ही उसका प्रयोजक

    होता है, किंतु जिस कर्म का फल दृष्टिगोचर होता है, अनुभव भी उसका

    नियामक होता है।

    शास्त्र तो प्रायः अपने विषय से संबंधित उस वस्तुस्थिति का

    दिग्दर्शन कराता है, जो प्राचीन काल से (परंपस से) प्राप्त है अथवा जो

    उसके समय में लक्षित होती है।

    वृद्धि होने पर कोई अंश क्षीण हो जाता है, कोई बढ़ जाता है तो

    कोई स्थायी बना रहता है।

    इस संसार में (वस्तुओं का) यह स्वभाव देखा जाता है कि वह सभी

    प्रकार के विषयों को ग्रहण करता है। यह बात संस्कृत के बारे में अपवाद

    नहीं होनी चाहिए।

    कालिदास के काल में जब प्रसिद्ध पद लुप्त हो गए, तब यदि वे

    वर्तमान काल में प्रयोग में आएँ तो क्या हानि होगी?

    प्रयोगों में यदि ऐसे नए रूप दृष्टिगोचर हों जो पहले के ग्रंथों में

    दिखाई देते हों तो इसमें क्षोभ का कोई कारण नहीं।

    यदि कोई अंश पचे तो इससे किसके रूप की हानि होगी! भला

    किसी भाषा का कहीं नाश होता है! उसका अंत तो संवृद्धि में ही होता है।

    इस विषय में कोई भी शास्त्र किसी प्रकार का निर्देश देने में समर्थ नहीं है। इसमें तो

    कवि और अन्य पंडित ही प्रमाण हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 707)
    • रचनाकार : भट्ट मथुरानाथ शास्त्री
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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