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संध्यातारा

sandhyatara

अनुवाद : उपेंद्रकुमार दास

बैकुंठनाथ पटनायक

अन्य

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बैकुंठनाथ पटनायक

संध्यातारा

बैकुंठनाथ पटनायक

और अधिकबैकुंठनाथ पटनायक

    वह संध्यातारा छिप जाता है

    नैशांधकार में है उसकी रुचि,

    विजन पथिक मर जाता सूखकर

    भर आते नयनों में आँसू।

    क्षणभंगुर है वह रूप-विभा

    शारदीय शुक्ल मेघों-जैसी

    तरुण स्वप्न स्मृति छाया

    छिप जाती है क्षण में रचकर माया।

    धूप काष्ठ जलकर फैलाता सुवास

    भस्म होकर पाता अवकाश

    हाट के उठ जाने पर सब हो जाता सूना

    शून्यता देती है मन को शत-शत पीड़ा।

    रंगभूमि की नर्त्तकी

    असावधानी में छोड़कर स्मृति-चिह्न

    दिखाई नहीं देती है कहीं पर

    केवल तट पर तरंगे सिर पीटती है।

    वह है क्षण-भर की मादकता

    कहने नहीं देती है मन की बात

    हँस-हँसकर दूर सरकती जाती है

    आलोक के पीछे विभावरी।

    ज़रा धरा दिखती नवीन

    नव वसंत के आने पर

    श्मशान से जी उठता है जीव

    अँधेरे में हँसता है बालारुण।

    कौस्तुभ से बढ़कर तारक तेज़

    चिंतन करता है दिन-रात कवि

    सुदूर कानन-संगीत

    करता इंगित व्यथा-काव्य में उसकी।

    क्षणिक रश्मि का अनुभव

    धन्य है जीवन अभिनव

    धूप-छाँह का खेल खेलकर

    नाविक देता अपनी नौका खोल।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 86 )
    • रचनाकार : बैकुंठनाथ पट्टनायक
    • प्रकाशन : साहित्य अकादमी

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