समापन का स्पंदन

samapan ka spandan

अर्पण कुमार

अर्पण कुमार

समापन का स्पंदन

अर्पण कुमार

और अधिकअर्पण कुमार

    परस्पर स्नेह और मुस्कुराहट से

    हम पास आए थे

    स्नेह का नेह जाता रहा

    फीकी पड़ती गई

    मुस्कुराहट की लिपस्टिक

    धुलती गई

    पान-सने होंठों की लालिमा

    हवा लग गई मौसम की

    हमारे प्यार को

    हम दूर हो गए

    जैसे दूर हो जाती है

    कोई कलाकृति

    शिल्पकारों के हाथों से छिटककर

    अंतिम रूप से

    तैयार होने से काफ़ी पहले

    अच्छा लग रहा था

    मृगतृष्णा के पीछे भागना

    हम दोनों को

    मुझे शायद ज़्यादा

    फिर क्या हुआ ऐसा कि

    अपनी वही हरकत

    बासी और उबाऊ लगने लगी

    हम दोनों को

    उसे शायद ज़्यादा

    जैसे हमारी गली की

    अच्छी-भली सड़क तोड़कर

    फिर से बनाई जा रही हो

    सिर्फ़ इसलिए कि मार्च तक का बजट

    मार्च में ही समाप्त कर देना है

    चिर-परिचित गली पहचान में नहीं रही

    हमारे बदले व्यवहार भी कुछ ऐसे ही थे

    कोई एंबुलेंस शोर कर रही हो

    मगर ट्रैफ़िक में फँसी

    आगे नहीं बढ़ पा रही हो

    हमारे भीतर शोर था

    मगर कोई उसे सुन नहीं पा रहा था

    हमारे पास ख़ाली पथ थे

    मगर हम आगे बढ़ना नहीं चाह रहे थे

    जैसे पुलिस को पीटा जा रहा हो

    उसके ही थाने में

    जैसे लैंपपोस्ट की पाइप से लटके हों कई-कई तार

    जैस राह चलते ठीक पार्श्व में

    सड़क पर पच्च से फेंक दी हो

    किसी ने गुटखे और लार की मिश्रित घोल

    जैसे बीच सड़क पर गा रहा हो

    बैंड का कोई गायक

    और आते-जाते राहगीर

    उसपर उचकते से ध्यान दिए

    आगे बढ़ते जा रहे हों चुपचाप

    क्या यही था हम दोनों का प्यार

    जैसे शौक़ से बनाया गया मकान

    कुछ इस तरह छोड़ दिया हो कि

    बरसों बरस उधर का रुख़ ही हो

    जैसे हरसिंगार ने फूल देने

    आम ने मंजर देने से

    इंकार कर दिए हों

    जैसे किसी पुराने किराएदार ने

    छोड़ दिया हो किराया देना

    और छोड़ रहा हो घर को,

    हमने छोड़ दिया

    साथ-साथ समय बिताना

    मगर छोड़ना नहीं चाहते

    अनुरक्त उस अतीत को

    जिसके भवन में कभी

    हम बुरी तरह घिरे थे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अर्पण कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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