सदियों के शब्दहीन विलापों में भटकते हुए

sadiyon ke shabdhin wilapon mein bhatakte hue

पंकज सिंह

पंकज सिंह

सदियों के शब्दहीन विलापों में भटकते हुए

पंकज सिंह

और अधिकपंकज सिंह

    सदियों के शब्दहीन विलापों में भटकते हुए

    सैकड़ों हजारों प्रकाश-वर्षों की दूरियाँ तय करते

    नक्षत्रों और तारों की पुकारों से भरे

    कई अंतरिक्षों की गतियाँ और ताप लिए

    वे आते हैं

    वे आते हैं

    जब छावनियों में सैनिक निश्चिंत सो रहे होते हैं

    ऊँघते होते हैं चोर और संतरी रतजगों के बाद

    बच्चों की नींद में

    जब समुद्रों से उमड़ते रहे होते हैं

    अज्ञात लोकों से सपने

    जब चाँद

    अपना पथरीला विशाल

    जाल समेटकर

    ओझल होने की तैयारी करता होता है

    किसी को कानोकान ख़बर नहीं होती

    तमाम वर्षों के दुख और शोक बटोरते

    वे आते हैं

    अपने निरंतर पुनर्जन्म की गरिमा में

    ओस और प्रकाश बिखेरते

    वे आते हैं जगमग से

    अजनबी भाषाओं के यात्री

    हर भाषा और हर अँधेरे में

    दुख को टटोलते

    प्रागैतिहासिक विशाल पक्षियों के डैने फड़फड़ाते

    वायुमंडल मथते-भूधराकार एहसास

    अतीत और भविष्य को गर्म रोटियों की गंध में बदलते

    वे आते हैं

    और खान मजूरों से

    हमारी आत्मा के राख भरे खोखलों में गहरे

    गहरे बहुत गहरे

    उन्मत्त धड़कनें बजाते हुए उतरते चले जाते हैं

    सुबहों को बस्तियाँ सवालों से भरी होती हैं

    देहों में ठाठें मारती होती हैं रक्त की नई नदियाँ

    ज्यों छायाओं और उदास जल से भरी दुनिया को

    अनेक सूरजों ने मिलकर चूमा हो लगातार

    पहली बार

    स्रोत :
    • रचनाकार : पंकज सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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