सच मानो या न मानो

sach mano ya na mano

शरच्चंद्र मुक्तिबोध

शरच्चंद्र मुक्तिबोध

सच मानो या न मानो

शरच्चंद्र मुक्तिबोध

और अधिकशरच्चंद्र मुक्तिबोध

    मेरी आशा बड़ी ज़िंदादिल है

    तुम सच मानो या मानो।

    मेरा दुःख बड़ा आत्मीय है

    तुम विश्वास करो या करो;

    मैंने कहा न?

    कि मेरे आँसू होते हैं गरम

    ख़ूब गरम

    और उन्हें ये ताप

    तुमने ही दिया है;

    इसे तुम सच मानो या मानो।

    निराशा की कड़वी शराब पीकर

    नशे में मस्त होकर,

    उदास दीवारो के पास

    खड़े-खड़े मैं गाता हूँ;

    और अजाने ही

    सुबह का गीत

    फूट पड़ता है;

    ये विश्वास और प्रेरणा भी

    तुम्हारी ही है;

    तुम सच मानो या मानो।

    मैं जो ये कहता हूँ

    कि मेरा दर्द

    मेरे लिए एक वरदान की तरह है;

    और उसमें सपने देखने वाली

    मेरी व्यथित चेतना है;

    और उन सपनों का ऐश्वर्य ऐसा है

    कि मौत भी

    आश्चर्य से पागल हो जाती है;

    और ये सब बादशाहत तुम्हारी है

    तुम सच मानो या मानो।

    मैं जानता हूँ

    और ये सच है

    कि सारे दिए बुझ चुके हैं

    भय के आतंक से

    द्वार सभी बंद हुए,

    जो इक्के-दुक्के लोग बचे हैं

    उनकी ज़ुबान भी लड़खड़ाती

    हकलाती है;

    और दूसरे ही क्षण

    खौफ़नाक डर से चुप हो जाती है

    चारों तरफ़ ख़ामोशी

    दहशत, और सन्नाटा

    ऐसी भयानक रात में;

    मेरा पहाड़ी स्वर

    ऊँची आवाज़ में

    निर्भय हो गाता है

    जागृति का मुक्त छंद।

    मौत के सामने भी

    मेरा यह आत्म-विश्वास

    तुम्हारा है;

    यह जयघोष

    तुम्हारा ही है;

    तुम सच मानो या मानो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 211)
    • रचनाकार : शरच्चंद्र मुक्तिबोध
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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